Book Title: Paumchariu Part 2
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 365
________________ एकचालीसमो संधि ३५७ आहार शरीरसे निवृत्ति ॥१-१॥ [१७] सूर्यके प्रहारोंसे आहत होकर इस्तिपदाके समान रात्रिके प्रहर नष्ट होकर चले गये। निशाचरीके समान घोड़ेकी नाकके समान वक्र, भग्नमानवाली और मानसे कलंकित रात्रि सूरके भयसे जैसे रण छोड़कर किवाड़ोंको खोलकर नगरप्रवेश करती है। शयनकक्षोंमें जो दीप जल रहे थे, मानो रात्रि अपने नेत्रोंसे मुड़कर देख रही थी। कमलोंको आनन्द देनेवाला सूर्य उठा मानो धरतीरूपी कामिनीका दर्पण हो ? मानो सन्ध्याने अपना तिलक प्रदर्शित किया हो, मानो सुकविका यश चमक रहा हो, मानो रामकी पत्नीको अभय देते हुए जैसे रात्रि के पीछे दौड़ा हो, मानो विश्वरूपी भवनमें दीपक जला दिया गया हो। जैसे वह बार-बार वहीं प्रदीप्त हो रहा हो । त्रिभुवनरूपी राक्षसको दिशारूपी वधूकी मुखरूपी गुफाको फाड़कर और उदर में प्रवेश कर मानो दिनकर सीतादेवीको खोज रहा है ।।१-२|| [१८] रात्रिके अन्धकारसमूहरूपी रजके नष्ट होनेपर राजा रावणकी सेवामें आये | मय, मारीच, विभीषण राजा, और भी दूसरे विश्व के एकसे एक प्रधान राजा, खरदूषणके शोकसे नतानन ऐसे लगते थे मानो बिना अयालबाले श्रेष्ठ सिंह हों। सब अपने-अपने आसनोंपर निश्चल बैठ गये मानो जिनके दाँत टूट गये हैं, ऐसे मतवाले गज हों । इसी बीच मन्त्रियोंसे महान् राजाओंने पटके भीतर सीता देवीको रोते हुए सुना। विभीषण कहता है-"यह कौन रो रहा है, बार-बार अपनेको शोकमें डाल रहा है, जान पड़ता है यह कोई वियुक्त परस्त्री है ।" फिर उसने रावणका मुख देखा, (और कहा) "शायद यह तुम्हारा कर्म है ? और किसका चित्त विपरीत हो सकता है ?" यह सुनकर सीसा आश्वस्त दुई, और कोयल के समान मीठे

Loading...

Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379