________________
एकचालीसमो संधि
३४५ पर्वस के लिए तीन बजाशनि, बीस हाथवाले निशाचर सिंह, देवरूपी मृगोंका निवारण करनेवाले, शत्रुरूपी गजको विदीर्ण करनेवाले, शत्रुमनुष्योंके प्राकारोंको नष्ट करनेवाले, दुर्दम दानव बलका दलन करनेवाले रावण, जब तुम इन्द्रसे युद्ध के प्रांगणमें लड़े थे तब सज्जनसमूहका नाश हुआ था। उस समय भी तुम्हें उतना दुःख नहीं हुआ था कि जितना खरदूषणके मरने के समय हुआ।" इसपर निशाचरनाथ उलटा कहता है-"हे सुन्दरी, यदि इसे अपराध न मानो तो मैं तुमसे कहता हूँ कि खरदूषणका दुःख नहीं हैं । मुझे तो केवल इस बातका दाह है कि सीता मुझे नहीं चाहती ॥१५॥ ____ [६] यह वचन सुनकर चन्द्रमुखी और मृगनयनी मन्दोदरीने हँसकर कहा, "अहो जीवोंको सतानेवाले दशग्रीव, रावण ! तुमने यह अत्यन्त अनुचित बात कही। दुनियामें अपने अपयझका डंका क्यों बजबाते हो, दोनों विशुद्ध कुलोको क्यों मैला करते हो, क्या नारकियोंके नरकसे तुम्हे डर नहीं लगता कि जो तुम दूसरोंके धन और स्त्रीकी इच्छा करते हो, जिनवरके शासनमें पाँच चीजे अत्यन्त विरुद्ध और अविशुद्ध मानी गयी हैं। इनसे (जीव ) नित्थरूपसे दुर्गतिमें जाता है। पहली है छह निकायके जीवोंका वध करना। दूसरी मिथ्यावादमें जाना । तीसरी है कि जो दूसरेका धन लिया जाता है, चौथा है कि परकल्म्रका सेवन किया जाता है। पाँचवीं है कि गृहद्वारको प्रमाण लिया जाना। इन चीजोंसे जीवको भवसंसारमें घूमना पड़ता है। परलोकमें भी सुख नहीं है और इस लोकमें अपयशकी पताका फैलती है । स्त्री सुन्दर नहीं होती इसके रूपमें यमनगरी ही आ गयी है." ॥१-९॥
[७] विशाल नितम्बोंवाली कुशोदरी बार-बार हृदयसे कहती है-"जो सुख कालकूट विष खाने में है, जो सुख प्रलया