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एकमालीसमो संधि नल में प्रवेश करने में है, जो सुख भवसंसारमें परिभ्रमण करने में है, जो सुख नारकियों के बीच निवास करने में है, जो सुख यम. शासनको देखने में है, जो सुख असिपंजरपर है, जो सुख प्रलयानलकी मुखगुहा में है, जो सुख सिंहकी दाढ़के भीतर है, जो सुख नागफनसे मणि तोड़ने में है, वहीं सुख इस नारीका भोग करने में है। जानते हुए भी यदि तुम इसकी इच्छा करते हो, तो मुझसे किस कारण पूलते हो। तुम्हारी तुलनामें कौन बलवान् हैं कि जिसने पुरन्दरको भी प्रतिस्खलित कर दिया। जिसको जो आ पड़ता है ( अच्छा लगता है उससे उसका अनुराग कम नहीं होता। यद्यपि असुन्दर ही हो लेकिन राजा जी करता है वह शोभा देता है" ॥१-९||
[८] यह वचन सुनकर विशालनधन रावणने अपनी पत्नीसे कहा-"जब मैं सुमेरु पर्वतपर गया हुआ था परम जिनेन्द्रकी वन्दना-भक्ति के लिए, तब मैंने वहाँ एक मुनिके दर्शन किये थे उनका नाम अनन्तपरमेश्वर था। उनके पास जो ब्रत लिया था, उसे नष्ट नहीं करूंगा। मैं बलपूर्वक दूसरेकी स्त्रीका भोग नहीं करूंगा। अथवा हे मन्दोदरी, इससे क्या ? यदि तुम लंका नगरीको आनन्दित्त देखना चाहती हो, यदि तुम धनधान्य और स्वर्ण माँगती हो, तथा ऋद्धि और वृद्धिसे सम्पन्न राजकुल माँगती हो, यदि घोड़ों और गजेन्द्रोंपर चढ़ना चाहती हो, यदि तुम वन्दीजनोंसे बन्दनीय होना चाहती हो, यदि निष्कंटक राज्य चाहती हो और यदि तुम्हें मेरे जीवित रहनेसे काम है? यदि तुम समूचे अन्तःपुरको राँड़ नहीं देखना चाहती तो हे मन्दोदरी, तुम जानकीसे मेरा दूतकार्य करो।" ||१-९||
[] रावणसे उन शब्दोंको सुनकर कामदेवकी नगरी मन्दो. दरी बोली, "हो-हो, संसारमें सब लोग दुर्भग हैं, तुम्हें छोड़कर