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एकचालोसमो संधि
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प्राप्त हुआ सज्जन हो। सीताके मोहमें मोहित रावण सुहावन। गाता है, बजाता है. और पढ़ता है। नाचता है, हँसता है, विकारोंसे नष्ट होता है, अपने ही से वह लज्जित होता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्रका विरोधी, इहलोक और परलोकमें दुर्भाग्यजनक कामदेवके अधीन वह यह नहीं जानता कि जानकी किस प्रकार उसका संहार कर देगी। वह कामदेव के तीरोंसे जर्जर था। वह खरदूषणका नाम भी भूल गया। दशानन सोचता है कि धन-धान्य स्वर्ण-सामर्थ्य राज्य और जीवन भी, सीताके बिना सब व्यर्थ है ।।१-९॥
[४] उस अवसरपर मन्दोदरी आयी, जैसे सिंहके पास सिंहनी आदी हो । शिनीली बार हीलाके साथ चलनेवाली, कोयल की तरह मधुर बोलनेवाली, हरिगीकी तरह, बड़ीबड़ी आँखोंवाली और चन्द्रमाके समान मुखवाली, कलहंसिनीकी तरह स्थिर और मन्द गमन करनेवाली, अपने स्त्रीरूपसे लक्ष्मीको उत्पीड़ित करनेवाली, अथवा इन्द्राणीका अनुकरण करती हुई, जैसी वह, वैसी ही यह प्रमुख रानी थी । जैसी वह वंसी यह बहुत ज्ञानवाली थी, जैसी वह, वैसी यह बहुत अभिमानिनी थी। जैसी वह, वैसी यह मनोरम थी, जैसी यह वैसी यह अपने प्रियके लिए सुन्दर श्री, जिस प्रकार वह, उसी प्रकार यह जिनशासन में थी। जिस प्रकार वह, उसी प्रकार यह कुशासनमें नहीं थीं । बहुत कहनेसे क्या? उस" कृशोदरीकी उपमा किससे दी जार ? मन्दोदरी जैसे अपने प्रति-उपमानके समान स्थित श्री ।।१-९।।
[५] वहाँ पलंगपर चढ़कर राजेश्वरी लंकापरमेश्वरी बोली, "अहो दशमुख, दहावदन, दशानन, 'अरे दसिर, नझमुख और श्रीको माननेवाले, अहो त्रिलोऋचक्रचूड़ामणि, शत्रुरूपी