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एकचालीस मो संधि
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दुसरा राज्य मिल जायेगा। अच्छा है जाकर देवसिंह रावणसे. तुम पुकार करो " इन शब्दोंसे कुमार सुण्ड हट गया। वह लंका गया, वहाँ तत्काल पहुँच गया । यहाँ विराधितके साथ राम प्रविष्ट हुए मानो कामिनीजनको मुग्ध करता हुआ काम हो । खरदूषण के भवन में प्रवेश कर चन्द्रोदरके पुत्र विराधितकी राज्य देकर, राम किसी भी प्रकार ढाढ़स नहीं बाँधते । वैदेहीके बियोग में वह अत्यन्त क्षीण थे। रथ्या तिमुहानी, चौमुहानियोंमें परिभ्रमण करते हुए, लम्बे बिहार और मठ छोड़ते हुए वह जब गये तो उन्हें जिनमन्दिर दिखाई दिया। उसकी परिक्रमा कर वह भीतर प्रविष्ट हुए। जिनवर के दर्शन कर, चित्तमें ध्यान कर उनकी अत्यन्त विमल मति हो गयी । अपभ्रष्ट (आ) भाषाओं तथा हजारों स्तोत्रोंसे बनपति रामने स्वयं स्तुति की ॥ १-१०६
इकतालीसवीं सन्धि
खरदूषणको न करके भो चन्द्रनखाको तृप्ति नहीं हुई, मानो वह फिर क्षयकालकी भूखके समान रावणके पास दौड़ी।
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[१] शम्बुकुमार वीरका अन्त और खरदूषण संग्राम समाप्र होनेपर, सुण्डके महात्रको दूर हटा दिये जानेपर, लक्ष्मण और रामके वमलंकार नगर जानेपर, यहाँ असुरोंमें मल्ल, देवोंके लिए भयानक, बहुत-से महावरोंको प्राप्त करनेवाले, शत्रुचलके बलरूपी पचनको आन्दोलित करनेवाले, रूपी समुद्रका बिरोलन करनेवाले, अंकुशसे मुक्त मतवाले गजको गर्मियों