________________
चालीसमो संधि
चन्द्रमा हो । "मैं जिस-जिस किसी भी बम्की शरण में जाता हूँ वह वह निष्फल हो जाती है, मैं कहाँ सहारा हूँ। इसे छोड़कर समय किस प्रकार बिताऊँ ? निर्धन होते हुए भी बड़ेकी सेवा करना अच्छा हो या न हो, तो भी मैं इनकी सेवा करूँगा । जिस प्रकार मुनि जिनकी सेवा करते हैं, उसी प्रकार मैं दृढ़ता से इनके चरणों में लगता हूँ। विधाता कितने समय तक प्रताड़ित करेगा ? अवश्य ही किसी दिन लक्ष्मी होगी ?" यह विचारकर नारायणने कहा- "खोज करना कितना काम है ? तबतक हम खोजें कि जबतक मिल जाये।" शीघ्र संग्राम भेरी बजवा दी गयी। सेना दसों दिशाओं में चली। विजयश्री से मेल करनेवाला वह ( विराधित ) वापस आ गया, जैसे ज्योतिषचक्र वापस आया हो, मानो सिद्धत्व सिद्धि प्राप्त नहीं हुआ हो। ध्वज और वाहनों सहित विवर सैन्य विमन मन होकर नीचा मुख करके इस प्रकार रह गया मानो हिमवातसे आहत मकरन्दसे भरा मुरझाया हुआ कमल वन हो ॥१- १०||
[१५] बिराधितने कहा-खरदूषण के मरनेपर, और देवोंके लिए भयंकर, त्रिभुवनजनके लिए भयावह रावण के जीवित रहनेपर बनमें रहना सम्भव नहीं है । शम्बूकका वध कर असिरत्न लेकर, तथा यमके मुख में प्रवेश कर कौन जीवित रह सकता है, जहाँ इन्द्रजीत, भानुकर्ण, पंचमुख, मय, मारीच, दूसरा मेघवाहन और अक्षयकुमार हैं । सहस्रमति और दुर्निवार विभीषण, हनुमान, नील, नल, जाम्बवन्न और समरभार उठानेवाला सुग्रीव है। जहाँ अंग, अंगद, गवय, गवाक्ष हैं, वहाँ उसके भाईका वध करनेके लिए यहाँ कौन रहता है।" इन शब्दोंसे लक्ष्मण विरुद्ध हो उठा, जैसे गजगन्ध से सिंह विरुद्ध हो उठा हो । क्या अच्छी तरह क्रुद्ध गजों और हरिणोंके द्वारा सिंह