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पोशनी संधि
पर, प्रवर यशके अधिपति विराधितने लक्ष्मणका जय-जयकार किया, "यह अब सेवकका समय है, हे देव! मैं भृत्य हूँ और आप स्वामीश्रेष्ठ हैं, चारण मुनियोंके द्वारा जो कहा हुआ था, उसे आज मैंने अपने नेत्रोंसे देख लिया है। आज मेरा मनोरथ सफल हो गया है कि जो मैंने तुम्हारे दो चरण देखे । जब मैं अपनी माँके गर्भ में था, तब मेरे पिता मार डाले गये । तात के साथ, मेरा आज्ञाकारी श्रेष्ठ समलंकार नगर छीन लिया गया । इस कारण समरके महाभयसे भीषण खरदूषण के साथ मेरा पूर्व वैर हैं ।" इस (प्रकार) विजयलक्ष्मी से प्रसाधित विराधित कहता है- 'मुझ सेवकपर प्रसाद हो । युद्धमुखमें तुम खरको परास्त करना, मैं दूषण से लड़ गा ॥१- १० ॥
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[५] इन शब्दों को सुनकर कुमारने विद्याधरको अभय वचन दिया- "तुम तबतक बैठो कि जबतक मैं एक सर-प्रहार में शत्रुको मार गिराता हूँ । खरदूषण के इस सैन्यको आज मैं तीरोंसे छिन्न-भिन्न करता हूँ। अपने हाथ से मैं ध्वज, वाइन और स्वामी सहित उसे शम्बुकुमारके पथपर लाता हूँ । तुम्हारी जन्मभूमि भी दिखाऊँगा और उस तमलंकार नगरका भोग कराऊँगा ।" लक्ष्मणके इन शब्दोंसे विद्याधर हर्षित हो गया । वह अपने हाथ सिरपर रखकर चरणोंपर गिर पड़ा। तब युद्धका निर्वाह करनेवाले (समर्थ) विमानपर बैठे हुए खरने मन्त्री से पूछा - "यह कौन मनुष्य है जो विश्वस्त होकर हाथोंकी अंजलि बाँधकर प्रणाम कर रहा हैं। बाहुबल और बलसे विशिष्ट बलवाला वह इस प्रकार मिल गया है, मानो क्षयकाल कृतान्तसे मिल गया हो ।" तब विमानमें बैठा हुआ मन्त्री कहता है - "क्या तुमने शत्रुको कभी नहीं देखा ? नामसे विराधित, यह प्रवर यशका स्वामी है । विशाल वक्षःस्थल
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