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सप्ततीसमो संधि
१०] दृषणके उन वचनोंको सुनकर गुंजाके समान आँखोंवाला खर कड़ककर बोला, "धिक्कार है, सज्जन पुरुषोंको इससे शर्म आनी चाहिए। ये केवल कुपुरुषों के कर्म हो सकते हैं। जबतक जीव अपने शरीरमें स्थित होकर स्वाधीन है, सबतक इसे दूसरे के पास क्यों जाना चाहिए। जब उत्पन्न हुए जीवको मरना ही है, तो अच्छा है कि शत्रु-समूह पर प्रहार किया जाये कि जिससे दुनियामें साधुकार मिले, मन्यलोकमें अजर-अमर कोई नहीं है । जिस प्रकार शत्रुरूपी समुद्र में आज भिड़ा, जिस प्रकार स्वजनसमूहके मनोरथोंको पूरा किया, जिस प्रकार तलवार, सबल और भालोंसे विदीर्ण किया, जिन प्रकार निलोकमें यशका डंका बजाया, जिस प्रकार आकपडामें देवसमूहको सन्तुष्ट किया, जिस प्रकार मुझे भी क्षयकाल प्राप्त हुआ, जिस प्रकार शत्रुरूपी चट्टानपर प्रचुर रक्तरूपी जल में अपना पराभवरूपी पट धोया, जिस प्रकार ध्वज, साधन, भट और प्रहरपके साथ अपने पुत्रका अतिथि बनकर गया ॥५-१।।
[११] यह सुनकर अपने कुल-भूषण दूषणने झीन लेख भेजा । अनेक युद्धोंमें शूर खर भी सेनामें संग्राम तूर्य बजाकर तैयार हो गया। कोई योद्धा अपने स्वामीके सम्मान दान और ऋणकी याद कर तैयार हो गये। किसीने तलवार ले ली। किसीने तरकस सहित धनुष ले लिया। किसीने भुशुण्डि और प्रचण्ख मोगर ले लिया। किसीने हुलि और किसीन चित्रदण्ड । इस प्रकार नाना प्रकारके हथियार अपने हाथमें लिये हुए तथा युद्धके भारमें समर्थ सेना शंका छोड़कर निकल पड़ी मानो पाताललंका ही कोलाहल करने लगी हो ? रथ, घोड़े, हाथी
और नरेन्द्रसमूह ऐसे मालूम होते थे, मानो सुकविके मुख से शब्द निकल रहे हो। हर्षसे अलंकृत खर-दूषणकी सेना क्रोधसे भरकर दौड़ी। आकाशमें व्याप्त वह ऐसी मालूम हुई कि जैसे