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महतीसमो संधि
३०. फण्टक वही रावण हो । एक ही आघातमें तुम केवल लोट-पोट हो गये :" चेतना पाकर कठोर और ईर्ष्यालु रावण जठा युद्धमें जैसे उस विद्याधरकी राशियोंमें शनिश्चर हो ।।१-१०॥
[१४] रावाद लेकर कारा और निजी सहित गरजता हुआ मेघ हो । विद्याधरकी विद्याका छेदन कर उसे जम्बूद्वीपके भीतर फेंक दिया। रावण फिर सीताके साथ चला, जैसे आकाशमें दूसरा चन्द्रमा हो । विजयश्रीको मानने वाला रावण समुद्रफे मध्य में फिर सीतासे कहने लगा-"हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती। महादेवीफे पट्टकी इच्छा क्यों नहीं करती। निष्कण्टक राज्यका भोग क्यों नहीं करती । सुरत-सुखका भोग क्यों नहीं करतीं । क्या किमीने मेरे मानको भंग किया है ? क्या मैं दुर्भग या अमुन्दर हूँ।" यह कहकर जैसे ही यह आलिंगन करता है, वैसे ही जनकसुता सीताने उसकी भर्त्सना की-'हे रावण, तुम थोड़े ही दिनों में युद्धमें जीत लिये जाओगे। हमारे मना करने पर भी तुम समके तीरोंके द्वारा आलिगित होओगे ॥१-५||
[१९] जब उसने कठोर वचनों में निन्दा की तो रावण बहुत दुःखी हुआ ! “यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँगा। इसलिए सब बोलोंको हँसकर टालते रहता हूँ । अवश्य ही किसी दिन यह चाहेगी और इधपूर्वक कण्ठ ग्रहण करेगी। और मुझे भी अपने व्रतका पालन करना चाहिए । बलपूर्वक दुमरेकी स्त्रीको ग्रहण नहीं करना चाहिए।" यह कत्र कर देवताओंके लिए भयानक वह चला। जिमने महावर प्राप्त किये हैं ऐसा वह लंका पहुँचा । सीता बोली--"मैं नगर में प्रवेशा नहीं करती। मैं इसी विशाळ नन्दन वन में बहती हूँ। जबतक मैं अपने पतिकी वार्ता नहीं सुनती. तबतक मैं आहारसे मिश्रृत्ति ग्रहण करती हूँ ।" यह सुनकर रावणने उसे उपवन में प्रवेश
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