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उतोसमी संधि
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[७] तीन गुणव्रतों का इतना ही फल है । अब चार शिक्षा व्रतोंको सुनिए । जो पहला शिक्षाव्रत धारण करता है, जिनवरकी तीन काल बन्दना करता है, वह मनुष्य जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ वहाँ लोगों द्वारा उसकी वन्दना की जाती है । जो विषयों में आसक्त-मन है, जो घर के भी जिनमन्दिरको नहीं देखता, वह श्रावकों के भीतर श्रावक नहीं है, यह केवल वनशृगालोंका अनुकरण करता है। जो दूसरे दूसरे शिक्षाव्रतको धारण करता है, सैकड़ों प्रोषधोपवास करता है, वह मनुष्य देवत्वको प्राप्त करता है, और सौधर्म स्वर्ग में बहुतों के साथ क्रीड़ा करता है। जो तीसरा शिक्षाव्रत धारण करता है, तपस्वियोंके लिए आहारदान देता है, और भी सम्यक्त्वका भार वहन करता है; वह देवलोकमें देवत्व प्राप्त करता है । जो चौथा शिक्षाश्रत वारण करता है और फिर संन्यास धारण कर भरता है वह तीनों लोकोंमें बड़ा होता है उसे जन्म, जरा, मरण तथा बियोगका भय नहीं रहता। सामायिक, भोजन सहित उपवास, और अन्तिम समय संलेखना करता है। इस अकार जो चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है वह इन्द्रके इन्द्रत्व टाल सकता है ॥१-१२ ।।
[2] शिक्षाव्रतका इस प्रकार फल कहनेके बाद सुनो अब अनर्थदण्ड बताता हूँ । खाया हुआ मांस अच्छा, मधु और मय अच्छा, हिंसा से सहित झूठ वचन अच्छा, गया हुआ जीवन अच्छा, गिरा हुआ शरीर अच्छा, लेकिन रात्रिमें चाहा गया भोजन अच्छा नहीं । पूर्वामें गण गन्धर्वोका, मध्याह्नमें सब देवोंका, अपराह्न में पितर- पितामद्दोंका, रात्रिमें राक्षस, भूत-प्रेत ग्रहोंका भोजन होता है। जिसने रात्रिका भोजन नहीं छोड़ा, बताओ उसने क्या नहीं किया ? वह सैकड़ों कृमियों, कोटों और पतंगोंको खाता है तथा खोटे शरीर और योनियोंमें
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