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छत्तीसमो संधि
२५९ गण्डस्थलवाला सिरकमल गिरा दिया। बार-बार वह देवजनोंको उसे दिखाती हैं । हे सूर्य, अग्नि, वरुण और पवन ! देवताओ! आप लोगोंने मेरे बच्चेको नहीं बचाया? सबने मिलकर उसकी उपेक्षा की ? इसमें तुम्हारा दोष नहीं है देवताओ, मेरा ही दोष है जिसने शायद दूसरे जन्ममें किसी दूसरेको सताया होगा ॥५-५॥ _ [१०] इसके बाद शोकसे घिरी हुई, जिस प्रकार नर्तकी,
मी प्रकार मत्सरसे भरी हुई, डरावने नेत्रोंवाली, विस्फुरित मुख, प्रलयकालकी आगके समान विकराल वह बढ़ती हुई
आकाशमण्डलसे जा मिली। यमकी जीभकी तरह आकाश में फिलकारियाँ भरती हुई। जिसने मेरे पुत्र स्वरके नन्दन और रावणके भानजेको मारा है, यदि मैं आज उसके जीवनका अपहरण नहीं करती तो मैं अग्निसमूहमें प्रवेश कर लूंगी, यह प्रतिज्ञा कर, चन्द्रनखा जैसे ही पीछे मुड़कर धरती देखती है वैसे ही उसने लतामण्डपमें दो मनुष्य देखे जो मानो धरतीके दो हाथ ऊपर उठे हुए थे। वहाँ एकके हाथ में करवाल दिखाई दी। तो इसी ने मेरे पुत्रकी हत्या की है। इस तलवारके द्वारा वंशस्थल के साथ ही, नियममें स्थित कुलकी दीवार शम्बुकुमारका सिर तोड़ा है ॥१-२॥
[११] जब उसने वनके भीतर दो आदमियोको देखा तो उसका पुत्रशोक चला गया। विरहरूपी महाभटने उसपर चढ़ाई कर दी। कामरूपी नटने उसे नचाना शुरू कर दिया। वह रोमांचित हो उठती है। पसीना-पसीना हो जाती है । सन्तप्त हो उठती है और उवरसे पीड़ित हो उठती है। वह मृच्छित होती है, उन्मूच्छित होती है। रुन-रुन शब्द करती है, विकारोंसे भग्न होती हैं। अच्छा है, मैं अपना यह रूप छिपा लूँ । देवोंके लिए सुन्दर कन्यारूप बनाती हूँ और फिर इस टता.