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पड़तीसमो संधि स्थिर और अच्छी तरह प्रतिष्ठिव छन्द, मधुकरीरूपी नियोंके कोलाइल तथा अभिनव पल्लासपी हामोदे संचाइनो गानो बह नृत्य कर रही थी। सिंहोंकी गर्जनाओंसे उठा हुआ कलकल शब्द ऐसा लगता था, मानो वह मुनिसुव्रत तीर्थकरका मंगलपाठ पढ़ रही थी। इसी बीच में उन्होंने देवोंके लिए सुन्दर एक लतागृह देखा। वहाँ इच्छापूर्वक रति करने के लिए वे ठहर गये, जैसे योग ग्रहण कर मुनीन्द्र ही ठहर गये हों ।।१-९॥
[११] वाहाँ उस प्रकारके बनमें शत्रुके लिए भयजनक समुद्रावर्तको धारण करनेवाला (लक्ष्मण ) घूमता है। जंगली हाथियोंपर चढ़ता है। वनकी गायों और भैसोको दुहता है। वह दूध, दही और मही, घी सहित जानकीको सौंपता है। वह भी सघन इंडियों में बनधान्योंके फटके गये चावलों तथा नाना प्रकारके फल रसोंसे आई करविन्द और करीरों, सालनोंसे उसे पकाती । इस प्रकार विविध प्रकारके भक्ष्योंका भोजन करते हुए, और वनवासमें वहाँ रहते हुए, वहाँ मुनि गुप्त और सुगुप्त आये। वे दोनों जीवदयाका दान करनेवाले और महाप्रती थे। वे कालामुख ( एक सम्प्रदाय | त्रिकालभोगी), कापालिक ( एक सम्प्रदाय | कामसे दूर ), भगव (भगवा वसधारी। शानवान् ), मुनि शंकर ( शिव । सुख देनेवाले); तपन ( सूर्य । तपस्या करनेवाले); तपस्वी और गुरु थे। जो वन्दनीय आचार्य और भोगसे प्रत्रजित थे तथा हविकी तरह भूति (धूल ऐश्वर्य ) से प्रसछादित थे । जन्म, जरा और मरणका निवारण करनेवाले वे आदरणीय वनचर्याके लिए निकलते हैं ॥१-९||
[१२] जब उन्होंने मुनिको प्रवेश करते हुए देखा तो वृक्षोंने श्रावकोंकी तरह बन्हें प्रणाम किया। भौरोंसे गूंजते हुए और प्रखर हवासे हिलते हुए उन्होंने मानो 'ठहरिए ठहरिए' कहा । कोई पृक्ष कुसुमप्रभारको छोड़ रहे थे, कोई मानो उन दोनोंकी