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पंचवीसमी संधि
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हैं कि जो हे देष, आपने आदेश दिया। ( यह कहकर ) इस प्रकार वह आदरणीय चला और सिंहोदरके भवनपर पहुँचा । ( वहाँ ) मतवाले हाथीकी तरह गरजकर और प्रतिहारको हाथ के अग्रभागसे डाँटकर, तिनकेके बराबर समझकर, समस्त दरबारकी उपेक्षा कर उसने उसी प्रकार प्रवेश किया कि जिस प्रकार गजसमूह में सिंह प्रवेश करता है ।।१-१०॥
[१३] अमर्ष से कुद्ध बहुत मत्सरसे भरे हुए उसने सिंहोदरको इस प्रकार देखा जैसे दानिश्चरने देखा हो । क्रोधानलकी सैकड़ों ज्वालाओंसे प्रज्वलित उसने बार-बार इस प्रकार देखा जैसे कृतान्तने देखा हो। जब-जब लक्ष्मण सम्मुख देखता, तबतब शिविर नीचा मुख करके रह जाता। उसने ( सिंहोदरने ) सोचा, कोई महाबलवान दिखाई देता है, जो न तो प्रणाम करता है और न बैठता है । उसीको लक्ष्य बनाकर कुमारने राजासे कहा - " बहुत विस्तारसे क्या ? भरत राजाने यह कहकर भेजा है कि सिंहके साथ कौन क्रीड़ा करता है, ऐरावतके दाँत कौन उखाड़ सकता है, मन्दराचलके शिखरको कौन उखाड़ सकता है ? चन्द्रमाको कौन अपने हाथसे ढक सकता हैं ? वर्णको कौन मार सकता है ? सन्धि कर लो और धरतीका हृदय के लिए शुभकर उत्तम कामिनीकी तरह भोग करों । अथवा हे राजन् तुम राज्यका आधा भाग नहीं चाहते, तो युद्ध के प्रांगण में आती हुई तीरोंकी कतारकी प्रतीक्षा करो" ॥१-१०॥
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[१४] लक्ष्मणके वचनोंसे क्रुद्ध होकर जिसके अधर विस्फुरित हो रहे हैं ऐसा वह सिंहोदर राजा, 'मर-मर, मारो - मारों' कहता हुआ, हाथ में तलवार लेकर उठा । भरत तबतक विश्वस्त बैठे, दूतको दूतत्व दिखा दो, उसकी नाक काटकर सिर मुड़षा दो, हाथ काट लो, धूल लगाकर निकाल दो,
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