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पंचवीसमो संधि
[११] सजल आँखोंसे वज्रकर्णने कहा, "माँगा गया में राज्य दे दूँगा ! भोजन ग्रहण करनेसे क्या ?” यह कहकर उसने अन्न ( भोजन ) उठा लिया और एक पलमें रामके पास पहुँचा। एक पल में कटोरी और थालमें उसे रख दिया गया 1 भोजन पात्र, सीप और शंख फैला दिये गये ।
वह भोजन, अनेक प्रकार भोजनोंसे प्रचुर था, ईखवनकी तरह मुखरस से परिपूर्ण था, उद्यानकी तरह सुगन्धित था, सिद्धके सिद्धि-सुखकी तरह सिद्ध था। रामकी भोजनकी वेला, अमृत समुद्रसे निकली हुई बेला ( वट ) के समान शोभित थी, जो धवल और हर कूट (मा) पीपेथी को चंचल और पल पेयरूपी आवर्त दे रही थी, जो धीरूपी लहरों के समूहसे प्रवाहित हो रही थी, कदीरूपी जलके कणोंको छोड़ रही थी, जो शालनरूपी सैकड़ों शैवालोंसे अंचित थी तथा लक्ष्मण और रामरूपी जलचरोंसे परिचुम्बित थी। अधिक कहने से क्या, प्रिय कलत्र ( प्रिय स्त्रीकी तरह ) कान्तिवाला ( सच्छा ), लवण (सुन्दरता और नमक ), व्यंजन ( अलंकार और पकवान ) से सहित वह भोजन ( राम-लक्ष्मण ने ) भोगा ( खाया, भोग किया ) ।।१ - १० ।।
[१२] भोजन कर रामने कुमार लक्ष्मणसे कहा, "यह भोजन नहीं हूँ यह तो उपकारका भारी भार हैं । इसलिए इसका कुछ प्रत्युपकार करो, दोनों सेनाओंके बीच तुम अपनेको प्रकट करो | जाकर उस सिंहोदरका निवारण करो। आधे राज्यपर सन्धि करवा दो, भरतके द्वारा प्रेषित दूत कहता है कि वज्रक दुर्जेय और अपराजित है। उसके साथ कैसा युद्ध कि जिसने युद्धमें साधन जुटाये हैं।"
यह वचन सुनकर, शत्रुओंका मर्दन करनेवाला लक्ष्मण रामके चरणों में गिर पड़ा कि आज मैं धन्य हूं, आज मैं कृतार्थ