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एकत्तोसमो संधि पाँचों शक्तियोंको धारण करता है, प्रतिपक्षका मर्दन करनेवाला नेत्रोंके लिए आनन्ददायक वह उसका पर होगा" ॥१-९||
[६) यह वचन सुनकर दुनिवार कुमार लक्ष्मण एक पलमें पुलकित हो उठा। वह विकट पदः क्षोभोंके साथ पुनः चला, मानो मैगल महागजका नाश करनेवाला सिंह हो । कहीं उसने कल्पवृक्ष देखे, मानो नगरकी आशासे पथिक ही वहाँ ठहर गये हों। कहींपर मालतीके पुरुष बिखरे हुए थे जैसे शिष्य सुकविका यश बिखरा रहे थे। कहींपर विचित्र सरोवर दिखाई दे रहे थे, सुमित्रसे शीतल जस में उसने अवगाहन किया। कहींपर सब रसोंका गोरस था मानो वह उनका मान हरणके लिए ही मिल आगाहोपर ईसारे देव इस प्रकार जलाये जा रहे थे जैसे दुर्जनोंके दुर्वचनोंसे सज्जनोंको जलाया जा रहा हो । कहींपर रहटें इस प्रकार घूम रही थीं कि जिस प्रकार संसारी रांसारमें घूमते हैं। मानो, उसकी (नगरकी) ध्वजा बुला रही थी कि लप्रमाण आओ आओ, शीघ्र जितपद्माको लो लो। जिसका द्वाररूपी उद्भट मुख है, जो देवकुलरूपी दाढ़ोंसे भास्वर है, बावड़ियाँ जिसके नेत्र हैं, ऐसे नगररूपी निशाचरने आते हुए असुर संहारक जनार्दनको निगल लिया ॥१-१०॥
[७] उस नगरने अपनी प्राकाररूपी भुजाओंसे जैसे लक्ष्मणका आलिंगन कर लिया । कहींपर रस्सियों के साथ घड़े थे मानो नादोंके साथ नाना नट हों। कह पर उत्तम वंशके महागज थे, जैसे सुकुलीन और विशुद्ध वंझके मनुष्य हो, कहींपर ध्वजपट इस प्रकार नृत्य कर रहे थे, जैसे स्वर्गमें सुरसमूहके समान हमी श्रेष्ठ हों। कहींपर लुहारोंके द्वारा लोहखण्ड, नरकमें पापपिण्डकी तरह पीदे जा रहे थे। उस बाजार मार्गको छोड़कर कुमार एक पलमें राजद्वारपर पहुँच गया । वह प्रतिहारसे कहता है, “जाकर यह कहो कि वर कहता है कि एक