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तेत्तीसमो संधि [६] परमेश्वर बार-बार कहते हैं, 'यह जीव तीन अवस्थाएँ धारण करता है। पहले उत्पत्ति जरा और मरणावसरवाला देहरूपी घर निबद्ध होता है। पुद्गल परिमाणरूपी सूत्र लेकर, हाथ पैररूपी चार खम्भे बनाकर, फिर बहुत-सी इड़ियोंको
आँतोंसे ढककर, मांस और हड्डियोंको चर्मरूपी चूनेसे सान दिया गया है। सिर रूपी कलझसे अलंकृत वह चलता है । इस प्रकार मनुष्य वर-भवनका अनुकरण करता है। किसी प्रकार वारुण्यको बिताता है। फिर बाद में जीर्णभावको प्राप्त होता है; सिर काँपता है, शब्द तक नहीं बोल पाता, कान सुनते नहीं, आँखें देखती नहीं। पैर चलते नहीं और हाथ काम नहीं करते । मेवनी बुद्रापले जर्जर हो जाता है। फिर अन्तिम समय शरीररूपी घर ढह पड़ता है, और जीव लसी प्रकार उड़ जाता है, जिस प्रकार वृक्ष छोड़कर पक्षी राष्ट्र जाता है ॥१-९॥
[७] यह सुनकर राजा विजय शान्त हो गया। उसने अपने पुत्रको अपने पदपर नियुक्त कर दिया। वह स्वयं भावरूपी ग्राहसे गृहीत होकर सो राजाओंके साथ दीक्षित हो गया । वहाँ उदित-मुदित भी निम्रन्थ हो गये। उन्होंने अपने कररूपी कमलोंसे बाल उखाड़ लिथे । फिर यह श्रमणसंघ उस नगरसे जिनवरोंकी वन्दना-भक्ति के लिए गया। सम्मेद शिखर तक जातेजाते वे उदित-मुदित मुड़ गये । तथा राजाको छोड़कर उन्मार्गसे चल पड़े। वे दोनों भूले-भटके वसुभूति भीलके गाँवमें पहुँचे । बद्ध बैर वह धनुर्धारी, गुंजाफर के समान आँखोंवाले, शराब पिये हुए, दुदर्शनीय स्थिर और स्थूल वक्षवाले उसने अपना गम्भीर स्वरबाला धनुष आस्फालित किया 1 शत्रुताएँ (बैर) नष्ट नहीं होती और न जीर्ण होती हैं । सात जन्मान्तरोंमें भी आहत व्यक्ति मारता है, ( मारनेवालेको ) ||१-२||