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पत्तीसमो संधि नाट्य शास्त्रमें गवेषित हैं। जबतक सीताः अपनी चौसठ मुजाओंका प्रदर्शन करती हुई भावपूर्वक नाचती है, तबतक दिन अस्त होनेपर गिरिके गहन घनमें उपसर्ग उठ खड़ा हुआ ।।१-९॥
[९] क्रोधाग्निसे युक्त हासवाले हजारों असुर आकाशतलमें दिखाई दिये। दूसरे फड़कते हुए अधरों और मुखवाले थे। दूसरे लाल-लाल खुली हुई आँखोवाल थे। दूसरे-दूसरे पीले शरीर और आँखोंवाले थे। दूसरे-दूसरे मांसरहित अत्यन्त सुगौलीय थे। दूसरे के सही होकर आगःशमें नाच रहे थे। दूसरे वहाँ हाथमें चामुण्ड लिये हुए थे। दूसरे कंकाल और वेताल थे, विकराल जो कटारी और शव हाथमें लिये हुए थे। दूसरे काले रंगके अत्यन्त अप्रशस्त थे, वे मनुष्योंकी मुण्डमाला
और कपाल अपने हाथमें लिये हुए थे। दूसरे चारों ओर किल्लकिलाकर हंस रहे थे, दूसरे उपहासोंसे ठहाका लगा रहे थे । दूसरे अत्यन्त भयंकर 'मर-मारो-मारों' कह रहे थे । इस प्रकार वे देशभूषण और कुलभूषण मुनिपर उपसर्ग कर रहे थे ।।१-९॥ ___ [१०] फिर, दूसरे-दूसरे, दूसरे प्रकारों तथा विषधर फनकी फूत्कारोंके साथ पहुंचे। दूसरे जम्बू और शृगालकी आषाजों, बैल-समूहके द्वारा छोड़ी गयी ढेक्का-ध्वनियों, दूसरे गजवरोंकी सीत्कार ध्वनियों, सर सन्धान और धनु-गुण-टंकारों, दूसरे गर्दभों और कुत्तोंके शब्दों, दूसरे तरह-तरह के डरानेवाले शब्दों, दूसरे गिरिषरों और तरुवरोंके आघातों, पानी-पत्थर और पवनके उत्पातोंके साथ पहुंचे। दूसरे अमर्ष और क्रोधसे स्फुरित होते हुए, दूसरे आँखोंसे आगकी चिनगारियाँ छोड़ते हुए, दूसरे दसमुख और सौ मुखवाले, दूसरे हजार मुखौ और बहुत-से नेत्रोंवाले वहाँ आये। उस वैसे समय भी, बुद्धिसे निर्मल उन श्रेष्ठ मुनियोंका ध्यान विचलित नहीं हुआ।