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तेत्तीसमो संधि [२] वे पश्मनीपुरके परमेश्वर विजयपर्वतको दिखाये गये । उसने भी उन्हें जिसका युद्धभार बढ़ रहा है, ऐसे अपने पुत्र जयन्धरका अनुचर बना दिया। इस प्रकार वे जब लक्ष्मीका उपभोग करते हुए रह रहे थे, तो उनका पिता कहीं बाहर गया। राजाके द्वारा अतिमि-लेख पंक्तिको धारण करनेवाले अमृतस्वरको भेजा गया। उसके साथ वसुभूति ब्राह्मण गया । लेकिन उसने उसके प्राणोंका अन्त कर दिया। वह लौट आया। वह मर गया' यह कहकर उन उदित-मुदितको तृपके समान समझउपयोगा देवीके साथ रहने लगा। उसका अमृतोपम अधरपान करने लगा। बड़े भाई (उदित)ने यह दुश्चरित जानकर वसुभूतिके जीवनका अपहरण कर लिया। वह विन्ध्याचलमें मिल्लपति होकर जन्मा। सबका पूर्वकृत कर्म परिणमित होता है ॥१-१॥
[३] जहाँ जयपर्वत नामका उदान था, इतने में वहाँ ऋषिसंघ पहुंचा। उसने एक-एक वृक्षके नीचे आवास किया, मानो पृक्ष-वृक्षपर श्री अवतीर्ण हुई हो । उनके ( वृक्षोंके ) अंग कोमल हो गये। पत्ते, फूल और फल अधिक हो गये। मुनि भी वृक्षकी तरह अविचल होकर स्थित हो गये....... किसलयोंने उन्हें ढक लिया ।........मुनि भी वृक्षके समान तपनके तापसे सन्तप्त थे। मुनि वृक्षकी तरह मूल गुणों (मुनियोंके मूलगुणों; जड़ों और तनोंसे ) सहित थे। मुनि वृक्षकी तरह आलवाल ( परिग्रह 1 क्यारी )से रहित थे। मुनि वृनकी तरह फल (मोझरूपी फल) से सहित थे। नन्दन वनका वनपाल शीघ्र वहाँ गया जहाँ विजय पर्यंत राजा था, ( और बोला ) "हे परमेश्वर, सिंहके समान पराक्रमवाले यतिश्रेष्ठोंने उद्यान ले लिया है। मेरे मना करनेपर भी, मार्गका अतिक्रमण कर वे मुनि सिंह के किझोरकी भाँति वनमें प्रवेश कर स्थित है," ||१-५॥