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वो सभी संधि
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पड़ा। भावोंसे प्रेरित भयसे रहित सुरसेना लीलापूर्वक आती है, मानो वह मुर्ख लोगोंका अन्धकार दूर करनेके लिए धर्मऋद्धिका प्रदर्शन कर रही हो ॥ १-२ ॥
[१३] इतनेमें इन्द्रने जनोंके मनों और नेत्रोंको अच्छा लगनेवाला ऐरावत सजाया । वह गज अपने चौंसठ नेत्रोंसे अत्यन्त शोभित हो रहा था, अपने बत्तीस दाँतोंसे गरज रहा था, उसके प्रत्येक मुखमें आठ-आठ दाँत थे-जैसे स्वर्णरचित निधान हों। एक-एक दतिपर जनोंके लिए सुन्दर एक-एक सरोवर प्रतिष्ठित था । प्रत्येक सरोवर में सरके प्रमाणकी एक चन्नदिनी उत्पन्न हुई थी एक-एक कमलिनीपर विशाल और नाल सहित बत्तीस कमल थे। प्रत्येक कमलमें बत्तीस पत्ते थे । प्रत्येक पत्तेपर उतनी ही (अर्थात् बत्तीस ) नर्तकियाँ थीं। वह जम्बूद्वीप के प्रमाणका था । फिर वह उस स्थान से प्रस्थित हुआ । उसपर चढ़कर सुरसुन्दर इन्द्र उस गजसे वन्दना भक्तिके लिए आया । इन्द्र के सामने नेत्रोंके लिए आनन्ददायक चारणसमूह गुरुकी प्रशंसा की। हे देवो, दानवो और दुष्ट मनुष्यो, तुम मुनिवरके चरणोंकी सेवा क्यों नहीं करते, अचल तप करते हुए जिनके लिए इन्द्र भी उतरकर आया ।।१ - ११ ।।
[१४] तब जिनवरके चरणकमलों की सेवा करनेवाले देवोंने उनके केवलज्ञानकी पूजा की। इन्द्र कहता है, "हे हे लोगो, यदि तुम जरा, मरण और वियोग से आशंकित हो यदि चार गतियोंसे उदासीन हो तो तुम जिनवर के मन्दिर में क्यों नहीं पहुँचते । जिस प्रकार तुम पुत्र कलत्र और खीकी चिन्ता करते हो, उस प्रकार तुम जिनवरकी प्रतिमाका चिन्तन क्यों नहीं करते। जिस प्रकार मांस और कामकी चिन्ता करते हो उस प्रकार जिनवरके शासनकी चिन्ता क्यों नहीं करते। जिस प्रकार ऋद्धि, लक्ष्मी और सम्पत्तिकी चिन्ता करते हो उस प्रकार
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