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बत्तीसभी संधि [२] जहाँ यह गिरिवरका शिखर दिखाई देता है, वहाँ भयंकर उपसर्ग हो रहा है। यहाँसे तूफान, धूल और दुर्षात आता है। पत्थर गिर पड़ते हैं, और धरती काँप उठती है। धरती घूमती हैं । सिंहनाद होता है। मेघ बरसते हैं ! आघात पड़ता है। इसी कारण समस्त लोक भाग रहा है। तुमपर वह उपसर्ग न हो।" यह सुनकर सीता अपने मनमें काँप गयी । भयसे अस्त-व्यस्त होकर, वह इस प्रकार योली, "एक देशसे दूसरे देश घूमते हुए और भागते हुए हम लोगोंका कौन-सा पराभव ?" यह सुनकर लक्ष्मणने कहा-'हे आदरणीये, आप कायर-जैसी बात क्यों करती है ? जबतक हम दोनोंके हाथों में अतुल प्रताप समुद्रावर्त और वावर्त धनुष हैं, जबतक दोनों विजय लक्ष्मीसे प्रतिष्ठित हैं और जननक तरकसोंमें तीर अधिष्ठित हैं, हे माँ, तबतक तुम्हें किससे आशंका है ? विहार करो, विहार करो। अपना मुँह टेढ़ा मत करो।" जनकसुताको धीरज देकर, धनुष जिनके हाथमें हैं ऐसे वे बलराम और केशय चले; जैसे स्वर्गसे अवतरित इन्द्राणीसे सहित इन्द्र, प्रतीन्द्र और सुरेश हो ॥१.११।।
[३] पथके भीतर उन्होंने भयंकर झसालोंसे छिन्न(?) और कठोर महीधर देखा जो बैलके समान अंगों ( सींग और शिखरों) से दीर्घ था, जो कहींपर भीमगुफाओंवाला, और कहीपर झरते हुए जलसे युक्त निझरवाला था, कहींपर रक्त चन्दन, तमाल, ताल और पीपल के वृक्ष थे, कहींपर भालू दिखाई दे रहे थे और कहींपर बोलते हुए मत्त मोर । कहाँपर अपने पूँछरूपी दण्डोंको धुनते हुए सिंह और जड़े थे। कहींपर मदुसे निर्भर गज आवाज कर रहे थे। कहींपर दाढ़ोंसे भयंकर सुअर घुर-घुर कर रहे थे । कहींपर लम्बी पूंछवाले वानर किलकारियाँ भर रहे थे। कहींपर स्थूल कन्धोंवाले साम्भर घूम रहे थे ।