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एक्तीसमो संधि [१२] अत्यधिक ईर्ष्यासे भरे हुए उसने एक और शकि छोड़ी जैसे पुरन्दरने वाशनि छोड़ी हो। उसे उसने वायी काँखमें इस प्रकार चाँप लिया जैसे कामुकने वेश्याको आलिंगित किया हो। उसने एक और धक-धक करती शक्ति छोडी, मानो सैकड़ों ज्वालाएँ छोड़नेवाली आगकी ज्वाला हो। आती हुई ससे भी नारायणने उसी प्रकार धारण कर लिया, जिस प्रकार शियजीके द्वारा वामार्धमें पार्वती धारण की जाती हैं। तब बहुमत्सरवाले देवकी पुत्र अरिदमनने पाँचवीं शक्ति फैकी जो मानो महीधर हो । छोड़ी गयी वह, उस नरपरके पास इस प्रकार दौड़ो जैसे माना कान्ता शुभंकर पांसके पास दोड़ी हो। किन्तु कुमारने अपने दाँतोंसे उसे उसी प्रकार रोक लिया जिस प्रकार नबसुरतागममें युवती रोक ली जाती है । इसी मध्य देवोंने लक्ष्मणके ऊपर फिरसे कुसुमवर्षा की। वह अरिदमन शक्तिहीन होकर नहीं सोह रहा था, वह दुष्ट पुरुषकी तरह शक्तिहीन होकर स्थित हो गया था । पुलकित शरीर, अष संहित, रणमुखमें बलवा हुआ इस प्रकार शोभित था, जैसे जिसकी आँखें रक्त कमलके समान हैं, रस मज्जा जिसका भोजन है, पेसा पाँच आयुधवाला देताल हो ॥१-१०॥
[१४] समरांगणमें असुरोंको पराजित करनेवाले लक्ष्मणने अरिदमनसे कहा--"स्वल, क्षुद्र, दुष्ट, मत्सरसे भरे राजन् , जिस प्रकार मैंने पाँच आघातोंको सहन किया है, उसी प्रकार तुम भी एक शक्तिको झेलो यदि तुम्हारे मनमें थोड़ी भी मनुष्य शक्ति है।" यह कहकर जैसे ही वह प्रहार करता है कि जितपभाने उसके गले में माला डाल दी। और बोली-रणमें दुदर्शनीय बहुत ठीक, बहुत ठीक, हे देव प्रहार मत करो, पिताकी भीख दो जो तुमने युद्धमें अरिदमनको पराजित कर दिया तो तुम्हें छोड़कर और कौन मेरा वर हो सकता है ?"