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सत्तवीसमो संधि मन वह द्विज यहाँ आया। "मरो मरो निकलो निकलो,' यह कहता हुआ, आगकी तरह धक-धक करता हुआ; भयसे भयंकर शनिश्चरकी तरह कठोर अत्यधिक विषवाले उदासीन विषधरकी तरह । क्या कतान्त मित्र कालका वरण कर लिया है ? क्या सिंह को उसकी अयालसे पकड़ लिया है, यमके मुख रूपी कुहरसे कौन निकल सका है ? किसने हमारे घरमें प्रवेश किया है ।।१-२॥
[१४] वह वचन सुनकर, युद्धभारका निर्वाहक लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठा, मानो स्थिर-थूल सूडवाला गज दौड़ा और द्विजवरको वृक्षकी तरह उखाड़ा. उठाकर आकाशमें घुमाकर फिर वापस उसे धरती तलपर पटके, कि इतने में रामने उसका हाथ पकड़ लिया--"छोड़ो-होड़ो अकारण इसे मत मारो। श्राह्मण, बालक, गाय, पशु, तपम्मी और स्त्री इन छहको मानक्रिया छोड़कर बचा देना चाहिए।" यह सुनकर लक्ष्मणने द्विजवरको उसी प्रकार छोड़ दिया, जिस प्रकार लाभणके द्वारा अलक्षण छोड़ा जाता है। बह वीर पीछे मुख करके हट गया। मानो अंकुशसे निरुद्ध मत्तगज हो। वह अपने मनमें क्षण-क्षण खेद करता है 'युद्ध में सौ टुकड़े हो जाना अच्छा, प्रहार करना अच्छा, तपश्चरण करना अच्छा; हलाहल विष अच्छा, मर जाना अच्छा; गहन वनमें चला जाना अच्छा परन्तु अपण्डितोंके मध्य एक पल भी निवास करना ठीक नहीं ।।१-५॥
[१५] वे तीनों इस प्रकार बातें करते हुए और लोगों में उन्माद पैदा करते हुए, दिनके अन्तिम प्रहरमें निकलकर हाथियोंके समान विशाल पनकी ओर चल दिये । जैसे ही वे विस्मृत अरण्यमें प्रवेश करते हैं, कि उन्हें वटका महावृक्ष दीख पड़ा, जो मानो गुरु ( उपाध्याय ) का रूप धारण कर पक्षियोंको सुन्दर स्वर अक्षर पढ़ा रहा हो । कौआ और किसलय क का
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