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अट्ठावीसमो संधि नगरी हो ॥१.९।।
[७] जब शाश्वत लक्ष्यवाले रामने विस्मय किया तो पूतन यक्षने नमस्कार कर कहा-"तुम्हारा वनवास जानकर भाव धारण कर मैंने नगरको रचना की" यह कहकर उस यक्षने सुविस्तृतनाम रामको सुघोष नामकी वीणा दी। आभरण सहित मुकुट विलेपन, मणिकुण्डल, कटिसूत्र और कंकण दिये। बह यक्ष प्रमुख फिर कहता है-“हे देव, मैं आपका अनुचर हूँ
और आप राना ।" इस प्रकार जबतक उसने ये शब्द कहे सबतक कपिलको वह नगर दिखाई दिया कि जो जनोंके लिए सुन्दर और देवस्वर्गके समान था। वह इन्द्रपुरीका भी मान स्वपिडत करता था। उसे देखकर ब्राह्मण शंकामें पड़ गया कि कहाँ विस्तीर्ण वन और कहाँ नगर! भयरूपी वासे थर-थर काँपता हु सहक व मिक्षा (नर्स साड़ियाँ) कर भागता है, तबतक 'डरो मत' यह कहती हुई चन्द्रमुखी ममतामथी यक्षिणी सामने आकर स्थित हो गयी ॥१-२॥
[८] "हे चारों वेदों में प्रधान अज्ञानी द्विजवर, क्या तुम रामपुरीको नहीं जानते ? जन मनके प्रिय राघव राजा हैं जो मतवाले हाथीकी तरह प्रगलितदान (मदजल झरनेवाला, दान वेनेवाला) हैं, जो याचकरूपी सैकड़ों भ्रमरोंसे नहीं छोड़े जाते, जिसके लिए जो अच्छा लगता है, वह उसे सब कुछ दे देते हैं। जो जिनवरका नाम लेता है, उनके दर्शन करता है, उसे वे अपने प्राण तक निकालकर दे देते हैं। यह जो पूर्व दिशामें विशाल त्रिभुवनतिलक जिनमन्दिर दिखाई देता है, वहाँ जाकर जो जयकार करता है, नगरमें केवल उसीको प्रवेश दिया जाता है।" यह सुनकर द्विजवर दौड़ा और एक पलमें जिनवर-भवन पहुँचा। वहाँ चारित्रसूरि मुनिकी वन्दना-विनय कर और अपनी निन्दा कर द्विजवरने मुनिवरसे पूछा कि
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