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एगुणतीसमो संधि घुनती है भाग्यको कोसती है। मन धक-धक करता है । देह सन्तप्त होती है। मानो कामदेव करपत्रसे काटता है । इतने में आकाशके आँगनसे धन गरजा, जैसे कुमारने अपना दूत भेजा हो, मानो वह कह रहा हो, हे आदरणीये ! धैर्य धारण करो, यह लक्ष्मण उपवनमें ठहरा हुआ है। तब उस तन्वंगीने मेघको बुरा-भला कहा। संगतिसे दोष भी गुण हो जाते हैं, तुम (मेघ) जनोंके मन और नेत्रोंके लिए आनन्ददायक हो परन्तु हे मेघ, मेरे लिए आगके समान हो। तुम्हारा दोष नहीं है। दोष तुम्हारे इत दुःखकुलका है। तुम जल, आग और पवनसे उत्पन्न हुए हो इसीलिए तुम' प्रस्वेद, जलन और निःश्वास ये तीनों मुझे दिखाने के लिए मोर १-।
[४] उसने मेघकी भर्त्सना की, वह आकाशके आँगनमें नष्ट हो गया। वसन्तमाला फिर अपने मनमें सोचने लगी कि क्या मैं जलती हुई आगमें प्रवेश कर जाऊँ, क्या समुद्र में, क्या भीषण जंगलमें चली जाऊँ ? क्या विष खा लूँ या साँपको चाँप लूँ ? क्या अपनेको करपत्रसे घिरवा लूँ, क्या गजवरके दाँतोंसे हृदय विदीर्ण करवा लू ? क्या तलवारोंसे तिल-तिल छेद लूं ? क्या दिशा लाँध जाऊँ, क्या संन्यास ग्रहण कर लूँ ? किससे कहूँ ? किसकी शरणमें जाऊँ ? अथवा इससे किसके पास जाऊँ ? अथवा, इससे क्या बनेगा ? मैं वृक्षको डालसे प्राणोंका विस. जन करती हूँ ।” यह कहकर वह अशोकवनको घोषणा करती हुई तुरन्त चल दी । जिसके हाथमें गन्ध, धूप, वलि और पुष्प हैं ऐसी वह लीलापूर्वक विश्वस्त रूपसे चलती हुई, चतुर्विध सेनासे घिरी हुई वह धन्या निकली। भाग्यसे कौन आलिंगन देगा, इस प्रकार बोलती हुई वह अशोकवनमें प्रविष्ट हुई। सूर्यास्त होनेपर 'लक्ष्मण कहाँ' जैसे वह यह खोज कर रही हो ॥१-२|