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एकतीसमो संघि
१९ जिसकी ऐसा वह, अपने नगर चला गया । राम और लक्ष्मणने जयमंगल तूर्योके कोलाहलोंके साथ धन-कणसे प्रचुर जयन्तपुर नगरमें प्रवेश किया। लक्ष्मण, लक्षणवती अपनी पत्नीके द्वारा स्वयं बाहुरूपी डालोंसे आलिंगित किया गया ॥१-२||
इकतीसवीं सन्धि राम लक्ष्मणने धन-धान्यसे समृद्ध पृथ्वीमें प्रसिद्ध जनोंके मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले उस नगरका वनवासको जाते हुए त्याग कर दिया।
[१] उस समय दोनों (वनमाला और लक्ष्मण) समागमके लोभी थे । ऋषिकुलकी तरह वे परमागम ( परम आगम-एक दूसरेका आगमन ) के लोभी थे । शीघ्र वे एक दूसरेसे अनुरक्त हो उठे। वे सन्ध्या और दिवाकरकी तरह अनुरक्त थे । वे दोनों अभिनव वधूवर सोम और प्रभाके समान सुन्दर चित्रा थं । जिन्होंने रक्त-कमल ( मुख कमल) का चुम्बन किया है, ऐसे भ्रमरोंके समान दोनों शीघ्र लुब्धरस थे। इतनेमें प्रस्थान करते हुए कुमारने विशाल नेत्रवाली वनमालासे पछा "हे वेरुफलकी तरह पीवर स्तनोवाली, कुवलय दलके समान खिले हुए नेत्रोंवाली, इंसगामिनी, गजगतिकी लीलासे विलसित, अपना नाम स्वयं प्रकाशित करनेवाली चन्द्रमुखी वनमाले, मैं किष्किन्धा पर्वतको लक्ष्य बनाकर दक्षिण देशके लिए जाता हूँ। सुरवरसे वर प्राप्त करनेवाले नव-बरने जब अपनी पत्नीसे पूछा तब गलितनयन, मुरझाये हुए चेहरे वाली विमान मन वह अपना मुख नीचा करके रह गयी ॥१-२||