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तीसमो संघि
[१] जो दूत भरतके लिए भेजा गया था, सम्मानहीन होकर वह चला आया । शीघ्र उसने नन्दावर्तके नराधिप अनन्तवीर्य नृपसे कहा --- " देखिए मैं कैसा अपमानित किया गया हूँ, सिर मूँड़कर किसी प्रकार मारा-भर नहीं गया। वह भरत युद्धमें सन्धि नहीं चाहता। जो ठीक समझो उसका अपने मनमें विचार करो | एक और आपका बैरी सेना सहित विन्ध्याचल तक आ पहुँचा है । वहाँ नरपति बालिखिल्य मुद्द गया है (बदल गया है), सिंहोदर और वज्रक मिल गये हैं। यहाँ रुद्रभूति, श्रीवत्सधर, मरुभूति, सुभुक्ति और विमुक्तिकर आदि दूसरे राजा भी हैं। दूसरोंके साथ आकर, तुम देखोगे कि वह कल लड़ेगा ।" तब अनन्तवीर्य क्षुब्ध हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि कल मैं भरतको नहीं मारता तो सुरश्रेष्ठ आदरणीय अरहन्तके चरणकमलका जयकार नहीं करूँगा ।।१-९॥
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[२] जैसे ही राजाने प्रतिज्ञा की, वैसे ही अशेष सेना आ मिली। लेख लिखकर शीघ्र ही विश्वविख्यात महीधर राजाके लिए भेजा गया। चोरकी तरह बँधा हुआ वह पत्र आगे डाल दिया गया । वह (पत्र) व्याधकी तरह हरिणक्खरों (हरि - सिंह के नखों, चित्र-विचित्र अक्षरों) से व्याम था । श्रेष्ठ साधुकी तरह सुन्दर पत्तवन्त (पत्र - पात्रसे युक्त ) था । गंगा नदी के प्रवाह के समान गायबहुल (नावों नामोंसे प्रचुर ) था । राजा वहाँ आये और अनन्तवीर्यसे मिले । शल्य, विशल्य, सिंहविक्रान्त, दुर्जय, अजय, विजय, जय, जयमुख, नरशार्दूल, विपुलगज, गजमुख, रुद्रवत्स, महीवत्स, महध्वज, चन्दन, चन्द्रोदर, गरुडध्वज, केशरी, मारिचण्ड, यमघण्ट कोंकण, मलय, पांड्य, आनर्त, गुर्जर, गंग, बंग, मंगल (मंगोल), पइविय, पारियात्र, पांचाल, सैन्धव, कामरूप
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