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तोसमो संथि
१५ करण क्रियाओंसे प्रवर था, काव्यको तरह छन्द और शब्दसे गम्भीर था। अरण्यके समान वंश और तालसे भरपूर था, युद्धफे समान राग और स्वेदसे सहित था। राम ज्यों-ज्यों उद्वेलित होते लोग वैसे-वैसे अपनेको झुकाते जाते । कामदेवके तीरोंसे क्षुब्ध यह उसी प्रकार मुग्ध हो गया, जिस प्रकार गेयसे मृगसमूह मुग्ध हो जाता है। राम पढ़ते हैं लक्ष्मण सुनता है कि कौन सिंहके साथ क्रीड़ा करता है। जबतक रणमुखमें हथियार नहीं उछलता और जबतक अन्य राजाओंके साथ, जीवनके लिए ग्राह वह तुम्हें नहीं पकड़वा, तबतक हे मूर्ख ! छल छोड़कर, बलका परित्याग कर, भरत राजाके घरों में गिर जा ॥१-९॥
[राचन्द जाम भी मार ली हुप, बार-बार पुनरुक्तियों के द्वारा इस प्रकार कहा-“हे राजन , भरतको नमस्कार करने और अनुनय करनेमें कौन-सा पराभव ? जो शत्रुरूपी समुद्रका मन्थन करता है, जो शत्रुरूपी चन्द्रको ग्रहणकी तरह लगता है, जो शत्रुरूपी आकाश में चन्द्रमाकी तरह आचरण करता है, जो शत्रुरूपी गजपर सिंहकी तरह आचरण करता है, जो शत्रुरूपी रात्रिके लिए सूर्यके समान आचरण करता है; जो शत्रुरूपी घोड़ेके लिए महिषका आचरण करता है, जो शत्रुरूपी सौंपके लिए गरुड़का आचरण करता है, जो शत्रुरूपी वनसमूहके लिए दावानलका काम करता है, जो शत्रुरूपी मेघसमूहमें पवनका काम करता है, जो शत्रुरूपी पवनके लिए पर्वतका आचरण करता है, जो शत्रुरूपी पर्वतके लिए वनका काम करता है। यह सुनकर मनमें विरुद्ध होकर क्रुद्ध तथा जिसके ओठ फड़क रहे हैं, जिसकी आँखें रक्त-कमलके समान लाल हैं, ऐसे राजा अनन्तवीयने इस प्रकार देखा मानो विश्व है भोजन जिसका ऐसे यमने देखा हो ॥१-९॥