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अट्ठावीसमो संधि
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भौंहों से प्रकृष्ट अंजनको दिखा रही थी ? देवकुलरूपी सुखकमलौंचो दिखाकर, श्रेदमस को दिनकर
दर्पण देख रही थी। इस प्रकार इस यक्ष ने समूचा नगर बनाया । शमके निकट बैठकर जिसके हाथमें बीणा है, ऐसा वह यह विश्वस्त होकर आलाप करता है - इक्कीस श्रेष्ठ मूर्च्छनाएँ, सात स्वर और तीन प्रामोंका प्रदर्शन करता हुआ, 'है आदरणीय राम ! यह तुम्हारा प्रभात समझो ' यह कहता हुआ ॥१-१०॥
[६] जैसे ही उसने सुप्रभातका उपचारण किया, वैसे ही रामने मुड़कर देखा । यक्ष द्वारा निर्मित वह नगर दिखाई दिया जो आकाशरूपी आँगनके समान सूर्यसे विभूषित था। ( आकाशकी तरह) वह सघन ( धनुष और घनसे सहित ), सकुम्भ (कुम्भ राशि और घड़ासे सहित); सस्यणु (श्रवण नक्षत्र, श्रमण मुनिसे सहित); संसंक (चन्द्रमा, मृगसे सहित ) सुबुध (नक्षत्र और पण्डितसे सहित); सतार (तारे, तारक सहित ), सगुरु ( गुरु नक्षत्र, उपाध्याय और चन्द्रमासे सहित) था। उन्होंने दुबारा लौटकर नगर देखा जैसे कुसुमोंसे व्याप्त महावन हो; जैसे सुकविका पयइतिङ ( पद, प्रजासे युक्त ) काव्य हो । जैसे बहुवित्त (नाना प्रकार के चित्र, अनेक चित्रोंवाला) राजाका चित्त हो । जैसे रथवरोंसे अमुक्त सैन्य हो, जैसे चौक सहित विवाहका घर हो, जो सम्भोगके समान worरीचरियाल (हाथीको ताली और चेष्टा, गीत विशेष और मार्गों से सहित था ) बच्चे की तरह जो अधिक छुआलड (अत्यधिक भूखा, चूनेसे पुता हुआ ) हो । अथवा क्षण-क्षण में उसके वर्णनसे क्या ? जो उस नगर में था, वह त्रिभुवन में भी नहीं था । उस रामपुरीको देखकर हजारों भुवनों में प्रसिद्ध नाम रामके मन में भ्रम हो गया कि शायद यह अयोध्यापुरी