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अट्ठावीसमो संधि "बिना सम्यक्त्वके केवल तानके लिए धर्म ग्रहण करनेका क्या फल है, प्रयत्नपूर्वक यह मुझे बताइये" ||१||
[२] मुनिवरने कहना शुरू किया--"क्या तुम लोगोंमें विपुल धर्मफल नहीं देखते । धर्मसे भटसमा अनव गड और रथ होते हैं, पापसे मरण, वियोग और आक्रन्दन । धर्मसे स्वर्गभोग और सौभाग्य मिलता है, पापसे रोग, शोक और दुर्भाग्य । धर्मसे ऋद्धि, वृद्धि, श्री और सम्पत्ति होती है, पापसे मनुष्य अर्थहीन और कर। धर्मसे कटक, मुकुट और कटिसूत्र होते हैं, पापसे मनुष्य दारिद्रयका भोग करता है । धर्मसे निश्चय ही राज्य करते हैं और पापसे दूसरों की सेवासे संयुक्त होना पड़ता है। धर्मसे उत्तम पलंगपर सोते हैं, पापसे तिनकोंकी सेजको भोगना पड़ता है। धर्मसे मनुष्य देवत्व प्राप्त करते हैं, पापसे घोर नरकमें संक्रमण होता है। धर्मसे नर उत्तम घरोंमें रमण करते हैं, पापसे दुर्भग, दुनिलयों में जाना पड़ता है। धर्मसे शरीरको रचना सुगठित होती है, पापसे लँगड़ा, बहिरा और अन्धा होता है। धर्म और पापरूपी कल्पवृक्षोंके इन यश और अपयशसे बहुल, दोनों प्रकारके शुभ-अशुभ करनेवाले जिवने प्रिय फल हैं, उन्हें ग्रहण करों" ॥१-२२॥
[१०] मुनिवर के वचनोंसे द्विजवर सन्तुष्ट हो गया, और जो जिनवरके द्वारा भाषित धर्म था, उसने वह ग्रहण कर लिया। पाँच अणुक्त लेकर वह दौड़ा, और एक पलमें अपने घर पहुँचा । जाकर उसने पिर सोमासे कहा कि "आज मैंने महान आश्चर्य देखा । कहाँ वन, कहाँ नगर और कहाँ राना ? और कहाँ अनेकोंके ज्ञाता मुनिको देखा ? कहाँ मैं, और कहाँ मैंने बहिरेके कान एवं अन्धेके नेत्रोंकी तरह, जिनवचन प्राप्त किये।" यह सुनकर सोमा पुलकित हो उठी । “हे स्वामी !