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अट्ठावीसमो संधि यह सुनकर वेदोंका आदर करनेवाला वह ब्राह्मण कहता है कि संसारमें धमका सम्मान कौन नहीं करता। जिस प्रकार लक्ष्मांके घरमें आनन्द होता है, अर्थ वैसा आनन्द देता है। इसमें हर्ष विषाद नहीं करना चाहिए । कालके अधीन कालको भी सहन करना पड़ता है इसमें हर्प-विवाद नहीं करना चाहिए। अर्थ विलासिनियों के समूहको प्रिय होता है। अर्थरहित मनुष्य छोड़ दिया जाता है। अर्थ पण्डित है, अर्थ गुणधान है, अर्थसे रहित व्यक्ति माँगता हुआ घूमता है। अर्थ कामदेव है, अर्थ विश्व में सुभग हैं । अर्थरहित मनुष्य दोन और. दुर्भग होता है। अर्थ अपनी इच्छाके अनुसार राज्यका भोग करता है । अर्थसे रहित व्यक्तिके लिए कोई काम नहीं है। तब साधु कहकर रामने इन्द्रनील मणि और स्वर्णखण्डों, कटकमुकुट और कटिसूत्रोंके द्वारा कपिलकी अपने हाथोंसे पूजा की ।।१-१२।
उनतीसवीं सन्धि देवोंके लिए भयंकर और शत्रुका नाश करनेवाले धनुर्धारी और सन्तुष्ट मन आदरणीय राम और लक्ष्मण दोनों ही सौताके साथ चले और जीवंत नगर पहुँच गये।
[२] वहाँ भी उन्होंने उस नगरको देखा जो सूर्यबिम्बकी तरह दोप-विजित (दोष और रात्रिसे रहित) था । जहाँ केवल कम्प अवजोंमें, घाच घोड़ोंमें, युद्ध सुरतियोंमें, जड (जटामूर्खता) रुद्रोंमें, मलिनता चन्दनमें, खल खेतोंमें, दण्ड छत्रोंमें, अनेक फरोंको ग्रहण करनेवाले दिवसोंमें पहर (प्रहर-प्रहार); धन दानोंमें, चिन्ता ध्यानोंमें, सुर (सुरासुर) स्वर्गों में,