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मत्तवीसमो संधि [६] इसी अन्तरालमें विंध्याचलका राजा रुद्रभूति अपने मंत्रियोंसे कहता है,–'त्रिलोक में यह भय क्यों हो रहा है । क्या किसी देव जनने दुंदुभि बजायी है ? क्या प्रलयके महा मेघ गरजे हैं? क्या आकाश मार्गमें बिजली तड़-तड़ चमकी है ? या पर्वतपर वफा गिरा है, या कृतान्तके मित्र कालने अट्ठहास किया है ? या वलयामुख समुद्र गरज उठा है। क्या इन्द्रका इन्द्रत्व टल गया है, क्या क्षय रूपी राक्षसने संसारको निगल लिया है, क्या मुवनतल पाताल लोकमें चला गया है। क्या ब्रह्माण्ड या आकाशतल फूट गया है ? क्या प्रलय पवन अपने स्थानसे चल पड़ा है ? क्या वनसमूह उछल पड़ा है ? क्या समुद्र सहित समूची धरती चल पड़ी है ? क्या दिशा गज या समुद्र गरज उठे हैं ? यह बतानो मुझे महान आश्चर्य है कि किसके शब्दसे त्रिभुवन थरौ उठा हूँ ? ।।१-९||
[७] जब राजाको यह कहते हुए सुना, तो पुलकित राहु सुभुक्ति कहता है-"सुनिए, मैं बताता हूँ कि जिससे त्रिलोकको भय उत्पन्न हुआ है। मेरु पर्वतके शिखरके सौ टुकड़े नहीं हुए हैं, और न सुरवरोंने दुटुभि बजायी है । प्रलय महामेघोंने गर्जन नहीं किया है, और न आकाश मार्गमें बिजली कड़की है । महीधर पर वञ नहीं गिरा है, और न कृतांतका मित्र काल हँसा है । वलयाकार समुद्र नहीं गरजा और न इन्द्रका इन्द्रस्व ही अतिक्रान्त हुआ है। न तो विनाशके निशाचरने संसारको निगला है, और न ब्रह्माण्ड या गगनतल ही फूटा है। न तो क्षयपवन अपने स्थानसे चलित हुआ है, और न वनका आघात हुआ है। न तो समुद्र सहित धरती उछली है और न दिशागज । और न समुद्र गरजा है। सीता लक्ष्मण बलराम
और गुणोंसे युक्त, समस्त जगको धवल करते हुए, सुकलत्रके समान विश्वके मनको हरण करनेवाले धनुधर लक्ष्मणके द्वारा
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