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छब्बीसमो संधि
१५ हुआ महाबली, प्यास और भखसे विहुलांग और स्खलित होता हुआ विरुद्ध होकर अपनी ही छायापर प्रहार करता हुआ, वह रामरूपी महागज जिनवचनरूपी अंकुशसे रोका जा सका। जानकीरूपी श्रेष्ठ हथिनीसे विभूषित उसे देखकर लोग हर्षित हो उठे। सभी राजसमूह मंचके आरोहणसे इस प्रकार उतर पड़ा, मानो प्रहतारा-गण मेरुनितम्बसे गिर पड़ा हो ।।१-९||
[१४] लक्ष्मण और कल्याणमाला दोनों ही रामके दानवोंका संहार करनेवाले चरणों में गिर पड़े। (और बोले ) हे देव! पहले देवक्रीड़ा हो ले, बादमें लीलापूर्वक भोजन ग्रहण करें।" यह कहकर उसने झलरि, तुणव, प्रणव, दडि और प्रहर बजवा दिये। वे दोनों साधन सहित सरोवररूपी आकाशमें घुस गये, जिसमें भ्रमररूपी घूमता हुआ प्रहमण्डल था, जो धघल कमलरूपी नक्षत्रोंसे विभूषित था। मीन-मकररूपी राशियोंसे युक्त था । जो उछलती हुई मछलीरूपी चंचल बिजलीसे युक्त था। नाना प्रकारके विहंगों रूपी धनोंसे संकुल था, जो कुवलयदलरूपी अन्धकारसमूहको दरसानेवाला था। सीकरसमूहरूपी वर्षाको बरसानेवाला था। जो जलतरंगोंरूपी इन्द्रधनुषोंसे युक्त था तथा अलरूपी ज्योतिषचक्रसे विजम्भित था। ऐसे उस सरोवररूपी आकाशतलमें राम और लक्ष्मण दोनोंने अपनी पत्तियों के साथ इस प्रकार रमण किया, मानो रोहिणी और रण्णाके साथ चन्द्र और दिवाकर हों॥१-९||
[१५ ] उस वैसे सरोवरमें पानी में तैरते हुए स्वर्ण यन्त्र चलते हैं, जैसे स्वर्गसे विमान आ पड़े हों, जो रंगोंसे विचित्र रत्नोंसे विजड़ित थे। उसमें एक भी रत्न ऐसा नहीं था कि जिसमें यन्त्र न जड़ा हो, ऐसा एक भी यन्त्र नहीं था, जिसमें मिथुन न चढ़ा हो, ऐसा एक भी मिथुन नहीं था, जिसमें स्नेह न बढ़ रहा हो। स्नेह भी ऐसा नहीं था जो सुरतिसे समृद्ध न