________________
छवीस संधि
१०९
उद्यानके समान जो फूलों और शाखाओंवाले थे, कवि द्वारा रचित पदोंकी तरह, जो छिद्र ( दोष ) से रहित थे, जो चारणजनके वचनोंकी तरह हलके थे । कामिनीके सुखरूपी कमलकी तरह जो सुन्दर थे, जिनवर धर्मके फलकी तरह जो बड़े थे, किन्नर मिथुनों ( जोड़ों) की तरह जो ( वस्त्र ) समसुत { अच्छी तरह सोये हुए, अच्छी तरह गुथे हुए ) थे, जो व्याकरणकी तरह अथसे लेकर समाप्ति तक पूर्ण थे, तब इसी बीच कूबरनगरके श्रेष्ठ तथा सुरबरके वज्रके मध्यभागकी तरह क्षीणशरीर कुमारने अपना कवच उतार दिया मानो सौंपने अपना केंचुल उतार दिया हो जैसे सरजनोंके मनको आनन्द देनेवाले त्रिभुवनस्वामी जिनेन्द्रने मौक्षके कारण संसार छोड़ दिया हो. ॥१-९२ ॥
[१८] उस एकान्त भवनमें, जब उस प्रच्छन्न कन्याने अपने आपको प्रकट किया तो रामने परितोषके साथ पूछा कि बताओ तुम पुरुषरूपमें क्यों हो ? यह सुनकर जिसकी आँखोंसे पानी बह रहा है, ऐसी वह रुँधी हुई बाणीमें इस प्रकार बोली, "रुद्रभूति नामका विन्ध्यपर्वतका राना प्रधान और दुर्जेय है । वह मेरे पिता कुबरश्रेष्ठ बालिखिल्यको पकड़कर ले गया हैं । इस प्रकारसे मैं पुरुषरूपमें रहती हैं कि जिससे दूसरे पुरुषोंके द्वारा न जानी जाऊँ ।" यह वचन सुनकर लक्ष्मण क्रुद्ध हो गया मानो आमिष ( मांस ) का डोभी सिंह हो । अत्यन्त सन्तप्त नेत्र, फड़कते हुए ओठोंवाला समरसर और कठोर वह इस प्रकार बोला - "यदि मैं युद्धके प्रांगण में उस रुद्रभूतिको नहीं मारता हूँ तो सीतादेवी सहित रामकी जय नहीं बोलूँगा" ॥१-९॥
[ १९ ] जब कल्याणमालाको अभयवचन दिया गया तो शीघ्र उसने आश्वस्त होकर पुरुषरूप ग्रहण कर लिया। इसी