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पंचवीसमा संधि विचार करता है कि क्या मार दूं। नहीं नहीं, इसमें क्या मिलेगा। यह विचार कर, मुजदण्डोंसे प्रचण्ड' वह वहाँसे गया, मानो आर्द्रगण्डस्थलवाला महागज हो। वह उस दशपुर नगरमें किस प्रकार पहुंचा मानो जनमनोंको मोहित करनेवाला कामदेव हो। दुरि मैफलों वैरियोंके प्राणों को चुरानेवाला वह किशोर सिंह के समान निकला । जब राज्यद्वारपर लक्ष्मण देखा गया तो प्रविहारसे कहा गया कि इसे मत रोको । यह वचन सुनकर लक्ष्मीके चिह्नोंसे भूषित शरीर वह वीर वहाँ गया। दशपुरके राजा बजकर्णने लक्ष्मणको आते हुए देखा, मानो ऋषभनाथने अहिंसा लक्षणवाले धर्मको देखा हो ॥१-१०॥
[१०] लक्ष्मणको देखकर वनकर्ण प्रसन्न हुआ । बारबार स्नेह से परिपूर्ण होकर तत्क्षण उसने यही कहा कि "क्या हाथी, रथ या नगरसमूह । या अपूर्व और स्फुरित मणियोंका मुकुटपट्ट । वस्त्रोंसे क्या और रत्नोंसे क्या? क्या मनुष्योंसे परिमित राज्य दे दूं। क्या विभ्रमसहित सुहृद्जन दे दूँ ? क्या पुत्र और पत्नीसहित इनका दास बन जाऊँ ?" यह वचन सुनकर हर्षितमन लक्ष्मणने राजासे कहा, “कहाँ मुनिवर और कहाँ संसार सुख ? कहाँ पापपिण्ड और कहाँ परम मोक्ष ? कहाँ प्राकृत और कहाँ कठोर वचन । कहाँ कमलसमूह और कहाँ विशाल आकाश ? मदमाते हाथीको हल कहाँ और ऊँटके घण्टी कहाँ ? कहाँ हम पथिक और कहाँ रथ और घोड़ोंका समूह ? वह बोलना चाहिए जो कलासे कम न हो, हम लोग दुष्ट भूखसे पीड़ित हैं ? तुम साधर्मी जन हो, दयाधर्म करते हुए कभी नहीं थकते। हम तीन जनोंको, यदि दे सकते हो, तो भोजन दो ।।१-१०॥ १. कहाँ प्राकृतजन और कहां फैचवपूर्ण वचन ।