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पउवीसमो संधि जाने लगे। उमरू, तिरिडिक्किया और झल्लरीसे भयंकर, मम्म-मम्मीस और गम्भीर भेरीका शब्द होने लगा। घण्टा और जयघण्टोंके संघर्षणसे दंकारध्वनि होने लगी। घूमते हुए शत्रुओंके कोलाहलसे मुखर शब्द होने लगे। उस शब्दसे, रोमांचरूपी कंचुकसे उद्धत, कोलाहलसे उत्कट, और अत्यन्त आश्चर्यचकित सभी सुभटसमूह प्रांगणमें स्थित हो गये, मानो जिनपरके जन्मके समय मेरु शिखरोंपर देवता इकट्ठे हो गये। प्रणत चारण, नट, छत्रकवि और बन्दीजनोंका-"बढ़ो, जय हो, हे भद्र जय हो, जय हो" शब्द होने लगा। लक्ष्मण और रामके पिता अपने अनुयापि साप घर हुए इस प्रकार निकले मानो जिनका अभिषेक करनेके लिए सुरपति ( इन्द्र) निकला हो ॥१-२||
[३] जब राजा दशरथ आनन्दसे निकला तो भरत राजाने प्रणाम कर कहा, "हे देव, मैं भी आपके साथ संन्यास ग्रहण करूंगा। मैं दुर्गतिगामी राज्यका भोग नहीं करूँगा। राज्य असार और संसारका द्वार है। राज्य एक क्षण में विनाशको प्राप्त होता है। राज्य इस लोक और परलोकमें भयंकर होता है, राज्यसे मनुष्य नित्य निगोदमें जाता है। राज्य रहे । यदि राज्य मधु सदृश सुन्दर होता है, तो आपने उसका त्याग क्यों किया? मुनिसमूहने राज्यको अकाज कहा है जिसका दुष्ट स्त्रीकी तरह अनेक लोगोंने उपभोग किया है। राज्य चन्द्रविम्बकी तरह दोषवाला है। दरिद्रकुटुम्बकी तरह अनेक दुःखोंसे व्याकुल है। तब भी जीव राज्यकी आकांक्षा करता है, प्रतिदिन गलती हुई आयुको नहीं देखता। जिस प्रकार मधुबिन्दु के लिए करभ कठोर नहीं देखता, उसी प्रकार विषयासक्त जीव राज्यके द्वारा सैकड़ों टुकड़ोंको प्राप्त होता है” ॥१-२||
[४] भरतको इस प्रकार कहते हुए राजा दशरथने मना