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पंचवीसमो संधि घोड़े गिरा दिये गये। दोनों सेनाओंके द्वारा रक्तकी धाराए प्रवाहित कर दी गयीं: दोनों सेनाओं द्वारा तलवारें मोड़ दी ली गयी, दोनों सेनाओंसे पक्षी काँप उठे। दोनों सेनाओंके द्वारा तूर्य निःशब्द कर दिये गये, दोनों सेनाएँ प्रहरणोंसे कठोर और विधुर थीं। दोनों सेनाएँ गजदन्तोंसे भिन्न हो गयीं। दोनों सेनाएँ रणभूमिमें स्थित हो गयीं। दोनों सेनाएँ रक्तसे आशरीर हो उठी। दोनों सेनाएँ हुंकार, हक्कार और ललकार रही थीं। इस प्रकार संग्रामके लिए एक पखवाड़ा हो चुका है,"-सीरकुटुम्ब रामसे कहता है। यह सुनकर रामने अपने हाथसे मणि-मरकतकी किरणोंसे विस्फुरित कण्ठा, कटक और कटिसूत्र उसे दिया ।।१-१०॥ ___ [७] फिर दोनों बलदेव और वासुदेव घले । सीतारूपी हथिनीके साथ वे आर्द्रगण्डस्थल गजके समान लगते थे। हाथमें धनुष लिये महाआदरणीय महारथी राम सहनकूट जिनभवनमें पहुँचे, जो इंटोंवाला धवल चूनेसे पुता हुआ था, जो सज्जनोंके हृदयके समान अकलंकित था, जो ऊँची शिखरोंयाला और देवों के द्वारा प्रशंसनीय था, जो वर्णविधित्र चित्रोंसे चिरचित्रित था। उस जिनभवनको देखकर वे सन्तुष्ट हो गये। तीन प्रदक्षिणा देकर वे वहां बैठ गये । वहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको देखा जो कल्पवृक्षके पुष्पोंकी मालासे युक्त थी, जो नागेन्द्र, सुरेन्द्र, नरेन्द्रों, मुनि, विद्याधर-समूहोंके द्वारा बन्दनीय थी तथा जो सुशोभित, सौम्य सुदर्शनीय थी। दूसरे, श्वेत चामर, सिंहासन, छत्रय, अशोक और भामण्डल भी। लक्ष्मीसे विभूषित एवं विकट स्थलवाले उस प्रतिबिम्बकी उपमा किससे स्थापित की जाये। बहुत कहनेसे क्या? फिर भी यह प्रतिकूल बात होगी यदि स्वामीसे स्वामीकी उपमा दी जाये ॥१-१०॥