________________
पंचवीसमो संधि विधुदंग राजा बजकर्णको आते हुए यशःपुंजकी तरह दिखाई दिया ॥१-२१॥ __ [३] वनकर्णने हँसकर विधु दंगसे पूछा-"अरे अरे, अत्यन्त पुलकित अंग तुम कहाँ जा रहे हो ?" यह सुनकर मुखसे विशाल चोर विद्युदंगने कहा, "कामलेखा नामकी विलासिनी है, जो अत्यन्त ऊँचे स्तनोंवाली और जनमनोंके लिए प्रिय है। अर्थसे हीन मैं उसमें अनुरक्त हूँ। उसने मुझे मणिकुण्डलोंके लिए भेजा है । मैंने विद्याधरका तन्त्र कर सातों परकोटोको लाँधकर जैसे ही उत्तम भवनमें प्रवेश किया, वैसे ही राजाको यह प्रतिज्ञा करते हुए सुना तो मैं उस वचनसे पीड़ित हो उठा। वजकर्णका नाश होना चाहता है। वह साधर्मों और जिनशासनका दीपक है। यह विचारकर मैं वापस आ गया। फिर भी पैरोंके अत्यन्त वेगसे मैं दौड़ा और एक पलमें तुम्हारे पास आ पहुँचा। उसकी सेवासे क्या ? जानते हुए भी हे राजन् ! तुम मूर्ख मत बनो । युद्धमें इस प्रकार लड़ो कि जिससे वह प्राण लेकर भाग जाये ।।१-१०||
[४] अथवा, अधिक कहनेसे हे राजन् ! क्या? देखो देखो, शत्रुसेनासे धूलकी छाया उठ रही है; आती हुई सेनाको देखो देखो; गरजते हुए महागजवाहनको देखो; देखो देखो, घोड़े हीस रहे हैं और विशाल आकाशतल में पक्षी सड़ रहे हैं। देखो देखो, पताकाएँ उड़ रही हैं; रथचक्र धरतीतलपर निमग्न हो रहे हैं; देखो देखो, सूर्य बज रहे हैं, जो नाना शब्दोंसे गम्भीर हैं । देखो देखो, सैकड़ों शंख बज रहे हैं जैसे अपने दुःखसे स्वजन रो रहे हों। देखो देखो चलते हुए राजाको, जैसे प्रह और नक्षत्रोंके बीच शनि हो ।" जबतक रथपुरका राजा देखता है, तबतक समूचा शत्रुसैन्य दिखाई देने लगता है। तब साधुसाधु कहकर, राजा वचकर्ण विद्युदंगका आलिंगन कर, जब