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पंचवीसमो संधि जिनवरकी प्रतिमा अँगूठे में लेकर यह उपशमभाव लिया है कि जिननाथको छोड़कर वह किसी औरके लिए नमस्कार नहीं करेगा ? लेकिन इतनेमें कुमन्त्रियोंने यह बात नरेन्द्र से कह दी कि वह आपकी उपेक्षा करके जिनेन्द्रको नमस्कार करता है। यह वचन सुनकर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ मानो प्रलयकालमें कालानल विरुद्ध हो उठा हो । कोपाग्निसे प्रदीप्त सिंहोदर ऐसा लगता है मानो पहाड़के शिखरपर सिंहशावक हो। ( वह कहता है)-"जो मुझे छोड़कर किसी दूसरेकी जयकार करता है, वह क्या इय, गज और राज्यको नहीं हारेगा? अथवा बहुत कहनेसे क्या ? कल सूर्यास्त तक यदि मैं उसे नहीं मारता, तो स्वयं अग्निमें प्रवेश करूंगा ॥१-१०॥
[२] जब युद्ध में वह अभन्न प्रमु यह प्रतिज्ञा कर रहा था कि तभी विद्युदंग चोर वहाँ प्रविष्ट हुआ। रात्रिके उस भ्रमरकुल और काजलके समान श्याम मध्यकालमें ( मध्य रात्रिमें) प्रवेश करते हुए उसने विस्फुरित राजाको प्रलयानलके समान धधकते हुए देखा। उसका शरीर रोमांचरूपी कवचसे कटीला था, वह मानो सजलमेघके समान गरज रहा था, सन्नद्ध जिसने समूचा परिकर बाँध लिया था। रणभारकी धुरीको उठाने में जिसने अपना कन्धा दिया, जो जबरदस्त डरावने नेत्रोंवाला था, जो अपने ओंठ चबा रहा था, जो अत्यन्त विस्फुरित मुखवाला था, जो 'मैं शत्रुको मारूँगा' इस प्रकार कह रहा था। जो प्रलयकालमें शनिश्चरके समान कुपित था। उसे देखकर बाहुओंसे विशाल वह सोचता है, क्या इसे मार डालूँ, नहीं नहीं, यह स्वामी श्रेष्ठ है ? साधर्मीजनके प्रति वत्सल मैं क्या करूँ ? समस्त आदरके साथ उससे जाकर कहता हूँ। यह विचारकर रोमांचित शरीर वह आधे पलमें दशपुर नगर पहुँच गया। शीघ्र ही अरुणोदय होनेपर दौड़ता हुआ