________________
चवीसमो संधि
हुए देखा। भरत राजाने धीरज धाया कि हे माँ, मेरा राज्य रहे ? मैं राम और लक्ष्मणको लाता हूँ। तुम व्यर्थ क्यों रोती हो ॥१-९॥
[८] यह कहकर भरत चल दिया। खोज करनेके लिए तुरन्त हाथ ऊँचा कर लिया। शंख बजा दिया गया और विजयका डंका भी मानो चन्द्रमाके उदयापर झपट गरज उहा हो। स्वामी रामके मागेसे राजा भरत उसी प्रकार चला, जैसे जीवके पीछे कर्म लगा हो। छठे दिवस बह वहाँ पहुँचा जहाँ सीता और लक्ष्मण सहित राम थे । शीघ्र ही पानी पीकर निवृत्त हुए सरोवरके किनारे लतागृह में वे उसे दिख गये । उनमें लीन होकर भरत उनके चरणोंपर गिर पड़ा, मानो इन्द्र जिनेन्द्रके चरणोंपर गिर पड़ा हो। ( वह बोला) "हे देव ! टहरिए, प्रवासपर मत जाइए | दशरथवंशकी नौका बनिए। मैं और शत्रुघ्न, दोनों तुम्हारे अनुचर हैं । लक्ष्मण मन्त्री है और सीता महादेवी । जिस प्रकार नक्षत्रोंसे चन्द्रमा, जिस प्रकार सुरलोकसे इन्द्र शोभित होता है उसी प्रकार तुम बन्धुलोकके साथ राज्यका भोग करो” ॥१-२|| __ [९] यह वचन सुनकर दशरथपुत्र रामने अपनी हर्षित भुजाओंसे भरतका आलिंगन कर लिया । तुम माता-पिताके सच्चे दास हो। तुम्हें छोड़कर और किसके पास इतनी विनय है । जबतक दोनों में यह आलाप हो रहा था, तबतक सैकड़ों युवतियोंसे घिरी हुई भरनकी माता इस प्रकार दिखाई दी मानो भटोंको भग्न करती हुई गजघटा आ रही हो, मानो तिलक (तिलक वृक्ष और तिलक ) से विभूषित वृक्षराजी हो, मानो पयोधरों (मेघ और स्तन ) से सहित आकाशकी शोभा हो। मानो भरतकी सम्पत्तिको ऋद्धिवृद्धि हो । मानो रामके गमन ( पनवास ) की सिद्धि हो। मानो भरतकी सुन्दर सुखखान हो।