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घडवीलम संधि कहकर राजा दशरथ अपनी पत्नीके लिए सत्य देकर और भरतको पट्ट बाँधकर प्रवज्या के लिए कूच कर गये ॥१-९||
[६] सुरबरों द्वारा वन्दनीय धवलविशाल सिद्धकूट चैत्यालयमें जाकर दशरथ संन्यास लेकर स्थित हो गये, पाँच मुट्ठी सिरसे केश लोंचकर | उनके स्नेहके कारण उनके साथ एक सौ चालीस लोग प्रबजित हुए | कण्ठा, कदक और मुकुटको उतारकर, कठोर पाँच महाव्रतोंको धारग कर वे अनासंग स्थित हो गये, मानो विषधर (धर्म | विष धारण करनेवाले ) नाग हों, मानो गयमासाहारिय ( गजासका' आहार करनेवाले। एक माह में आहार करनेवाले ) छों, मानो परदारिक हैं जो परदारगमण ( परस्त्री मुक्तिरूपी वचका गमन करनेवाले ) हैं। तब किसीने भरतेश्वरसे कहा कि राम और लक्ष्मण वनवासके लिए गये हुए हैं । यह वचन सुनकर जिसकी बाँह कम्पित हैं, ऐसा भरत वनाहत पर्वतकी तरह गिर पड़ा। जब राजा मूलित हो गया तो मुखसे कातर सभी लोग प्रलयकी ज्वालासे सन्तप्त होकर चिल्लाने स्टगे मानो समुद्र गरज रहा हो ॥१-९॥
[७] चन्दनसे लेप किये जाने और चमरोंके उत्प्रक्षेपणसे हवा किये जानेपर राजा भरत बड़ी कठिनाईसे आश्वस्त हुए। चूढ़े चन्द्रकी तरह वह एकदम म्लान हो गये । अविरल
आँसुओंके जलसे आद्रेनयन और गद्गद वचन वह इस प्रकार बोले-"आज आकाशके ऊपर वन निकल पड़ा। आज झारथवंझाका अमंगल है। जिसका पक्ष नष्ट हो गया है ऐसा मैं आज दुःखभाजन और दूसरों के मुखकी अपेक्षा करनेवाला हो गया हूँ। आज नगर थी और सम्पत्तिसे रहित हैं, आज राज्य शत्रुचक्रके द्वारा पीड़ित है। सभा के सामने, इस प्रकार प्रलापकर, भरत रामकी माताकी सेवामें गया। जिसके केश अस्त-व्यस्त हैं, ऐसी उसे रोते हुए और अथुप्रवाह तथा दहाड़ छोड़ते