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सेवीसमो संधि
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कहकर राम तुरन्त चले, समस्त परिजनों से पूछते हुए | धवल और कृष्ण कमलोंके समान लक्ष्मण और रामके द्वारा छोड़ा गया घर उसी प्रकार न तो शोभा देता है और न चित्तको अच्छा लगता है, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा के बिना आकाश किया है ऊँचा हाथ जिसने ऐसा वह घर मानो चिल्लाता है और मानो रामको स्त्रीहानि बतलाता है । मानो भरत राजाको यह ज्ञात कराता है कि हे राजन्, जाते हुए रामलक्ष्मणको रोको, फिर प्राकाररूपी भुजाओंको फैलाकर और आलिंगन कर जैसे उनको रोक रहा था। जिनके हाथमें धनुप और बाण हैं ऐसे वे दोनों समुन्नतमान इस प्रकार चले जैसे रोते हुए मन्दिर के प्राण ही निकल रहे हों ॥१-१२॥
[ ६ ] तब इस बीच नेत्रोंको आनन्ददायक रामने चलते सीतादेवीका मुख देखा, मानो चित्तने चित्तको संचालित किया हुए हो। जानकी अपने भवनसे इस प्रकार निकली, मानो हिमालय से गंगा नदी निकली हो, मानो छन्दसे गायत्री छोड़ी हो, मानो शब्द से विभक्ति निकली हो, मानो सत्पुरुषसे निकली हुई कीर्ति हो, मानो रम्भा अपने स्थानसे चूक गयी हो। अपने सुन्दर चरणयुगलसे लीलापूर्वक चलती हुई मानो गजघटा भटटाको विघटित करती हुई जा रही हो । नूपुर, हार और डोरसे व्याकुल होती हुई प्रचुर ताम्बूल कीचड़ में निमग्न होती हुई, नीचा मुख कर, चरणकमलोंको देखकर, अपराजिता और सुमित्रा से पूछकर सीतादेवी भी अपने भवनकी शोभाका अपहरण करते हुए निकली जो मानो रामके लिए दुःखकी उत्पत्ति और रावणके लिए वज्र श्री ॥१- ॥
[७] जैसे ही राज्यद्वार रामने पार किया, वैसे ही लक्ष्मण अपने मनमें क्रुद्ध हो उठा। यशका लोभी वह धकधक करते हुए उठा, जैसे बीसे सिक आग हो, जैसे महामेघोंके गरजने -