________________
तेवीसमो संधि
१५
[१२] वे अयोध्याकी दायीं दिशाकी ओर इस प्रकार निकल गये, मानो निरंकुश मतवाले महागज हो। राम और लक्ष्मणके द्वारा मुक्त वह नगरी शोभा नहीं देती, वैसे ही, जैसे आज्ञासे चूकी हुई कुनारी। फिर थोड़ी दूरपर प्रसिद्धनाम रामके लिए अच्छे अनचरोकी तरह तमन्नरोंने नमस्कार किया। कोलाहल करते हुए पक्षी उठे मानो बन्दीजन मंगलपाठ पढ़ रहे हो। जबतक वे आधा कोस तक पहुँचे कि तबतक चारों
ओर निर्मल प्रभात हो गया। निशारूपी निशाचरीके द्वारा जो निगल लिया गया था मानो वह जन पुनः उसके द्वारा उगल दिया गया । उगता हुआ सूर्यबिम्ब इस प्रकार शोभा देता है, कि जैसे प्रभासे युक्त सुकविका काव्य हो। पीछे सैन्य उनके पीछे दौड़ा और शीघ्र ही रामके निकट पहुँच गया। नरश्रेष्ठोंने सीता और लक्ष्मण सहित रामको इस प्रकार प्रणाम किया मानो बत्तीसों इन्द्रोंके द्वारा जिनयरको प्रणाम किया गया हो ।।१-९॥ . [१३ ] जिसका अश्ववाहन हिनहिना रहा है, ऐसे अपने सैन्यसे घिरे हुए राम मानो दिग्गजकी तरह लीलापूर्वक पैर रखते हुए उस पारियात्र देश पहुँचे । और भी जैसे वह थोड़ी दूर जाते हैं कि वैसे ही उन्हें गम्भीर महानदी दिखाई दी, वेगशील मत्स्योंकी पूछोंसे उछलती हुई, फेनाबलिके जलकणोंको देती हुई, हंस-शिशुओंके द्वारा काटे गये कमलोंसे युक्त, वरकमलोंसे व्याप्त जलसमूहवाली हंसावलीके पंखोंसे समुल्लसित, लहरसमूहके आवोंको देती हुई, वनगजोंके समूहसे सहित तथा प्रचुर फेन-समूहको दिखाती हुई वह शोभित होती है, उछलती है, मुड़ती है, प्रतिस्खलित होती है, दौड़ती है और महागजकी लीलासे प्रसन्नतापूर्वक चलती हैं। उलटे हुए मगरोंसे भयंकर नेत्रोंसे कटाक्ष करती हुई ऐसी दिखाई दी मानो अत्यन्त कठिन प्रवेशवाली दुदर्शनीय दुर्गति हो ॥१-९||