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तेवीसमो संधि नरेन्द्र और चन्द्र के द्वारा प्रणम्य, आपकी जय हो । सात महाभयोरूपी अश्चोंका दमन करनेवाले, आपकी जय हो । ज्ञानरूपी आकाशमें विहार करनेवाले हे जिन-सूर्य, आपकी जय हो; पापफर्मरूपी दौको असारेवाले, अपड़ी जय हो । चतुर्गतिरूपी रात्रिके तमका नाश करनेवाले, आपकी जय हो । इन्द्रियरूपी दुर्दम दानवका दलन करनेवाले, आपकी जय हो । यक्षों
और नागोंके द्वारा स्तुत धरण, आपकी जय हो । केवलज्ञानरूपी किरणको आलोकित करनेवाले, आपकी जय हो । भव्यरूपी अरविन्दोंको आनन्द देनेवाले, आपकी जय हो । विश्वमें एकमात्र धर्मचक्रका प्रवर्तन करनेवाले, आपकी जय हो। मोक्षरूपी पर्वतपर अस्त होनेवाले, आपकी जय हो।" इस प्रकार भावपूर्वक जिनेशकी वन्दना कर और तीन प्रकार प्रदक्षिणा देकर फिर वे तीनों वनके लिए चल दिये ॥१-१३||.. ....
[११] जैसे ही राघव रात्रिके मध्य में चलते हैं, धैसे ही, उन्होंने परम महायुद्ध देखा। क्रुद्ध विद्ध और पुलक विशिष्ट मिथुन, सैन्यकी तरह भिड़ जाते हैं। एक दूसरेसे, मुडो मुड़ो, कहते हुए; मर मर, प्रहार कर, प्रहार कर यह बोलते हुए, सर (तीर और स्वर ) हुंकार सार ( हुंकारकी ध्वनि, सुरतिकी ध्वनि ) करते हुए, भारी प्रहारोंसे उरको पीटते हुए, क्षणमें गिरते हुए, अधर काटते हुए, क्षणमें किलकारियों और परिभ्रमण प्रदर्शित करते हुए, भाणमें प्रचुर केश खींचते हुए, क्षणमें निष्पन्द होकर पसीना पोछते हुए । ऐसा वह सुरति महायुद्ध देखकर राम सीताके मुखकी ओर देखते हैं। फिर हँसते हुए,
और कीड़ा करते हुए बाजार-मार्ग देखते हुए वे चले। जो भी उस समय रमण कर रहे थे, सुरतिमें आसक्त वे (मिथुन) राम और लक्ष्मणकी आशंका कर अपना मुंह ढककर स्थित हो गये ।।१-५॥