________________
केंद्र कार्य करता है और जो कुछ भी तुम जानते हो मिथ्या है, असत्य है। तुम झूठ के संसार में जीते
हो।
लेकिन ये दोनों केंद्र मन से ही संबंध रखते हैं। जब मन छूट जाता है और ध्यान अपनी समग्रता में पहुंच जाता है, तब तुम अ-मन तक पहुंच जाते हो। संस्कृत में हमारे पास दो शब्द हैं : एक शब्द तो है ध्यान। दूसरा शब्द है समाधि।'समाधि' का अर्थ होता है, ध्यान की परिपूर्णता; जहां ध्यान तक अनावश्यक बन जाता है, जहां ध्यान करना अर्थहीन है। तुम उसे करते नहीं हो, तुम वही बन गये हो, तब यह समाधि है।
समाधि की इस अवस्था में मन नहीं बचता। वहां न शान होता है और न ही अजान। वहां केवल शुद्ध अस्तित्व होता है। यह शुद्ध होना बिलकुल ही अलग आयाम है। यह जानने का आयाम नहीं है। यह होने का आयाम है।
यदि बुद्ध या जीसस जैसे पुरुष भी तुम्हारे साथ संपर्क करना चाहें, तो उन्हें भी मन का उपयोग करना होगा। संवाद के लिए उन्हें मन का उपयोग करना ही होगा। यदि तुम उनसे कोई प्रश्र करते हो, तो उन्हें अपने सम्यक ज्ञान वाले केंद्र का उपयोग करना होगा। मन संपर्क बनाने का, सोच-विचार करने का, जानने का उपकरण है।
लेकिन जब तुम कुछ पूछ नहीं रहे हो और बुद्ध अपने बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं, तब वे न अज्ञानी होते हैं और न ही तानी। वे तो बस वहां होते हैं। वास्तव में तब बुद्ध और वृक्ष में कोई अंतर नहीं होता है। एक अंतर है, लेकिन एक तरह से कोई अंतर नहीं होता है। वे वृक्ष की भांति हो गये हैं, वे केवल हैं। वहां कोई प्रवृत्ति नहीं जानने की भी नहीं। सूर्योदय होगा,लेकिन वे नहीं 'जानेंगे' कि सूर्योदय हो गया है। ऐसा नहीं है कि वे अज्ञानी बने रहेंगे नहीं। यह केवल ऐसा है कि जानना अब उनकी क्रिया न रही। वे इतने मौन हो गये हैं, इतने निश्चल कि उनमें कुछ नहीं हिलता-डुलता।
वे वृक्ष की भांति हैं। तुम कह सकते हो कि वृक्ष पूर्णतया अज्ञानी होता है। या तुम कह सकते हो कि वृक्ष मन से नीचे होता है। उसके मन ने अभी कार्य करना शुरू नहीं किया है। वृक्ष किसी जन्म में एक व्यक्ति बन जायेगा। वृक्ष किसी जन्म में तुम्हारी तरह पागल बन जायेगा। और वृक्ष किसी जन्म में ध्यान करने का प्रयास करेगा और वृक्ष एक दिन बुद्ध भी हो जायेगा। वृक्ष मन के नीचे है और वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध मन से ऊपर हैं। दोनों मनविहीन हैं। एक को अभी मन को प्राप्त करना है,और एक ने उसे प्राप्त कर लिया है और उसके पार हो गया है।
इसलिए जब मन का अतिक्रमण होता है, जब अ-मन उपलब्ध हो जाता है, तब तुम शुद्ध अस्तित्व हो-सच्चिदानंद। तुममें कुछ घटित नहीं हो रहा है। न तो क्रिया वहां है और न ही ज्ञान वहां है। लेकिन हमारे लिए यह कठिन होता है। शाख बताते रहे हैं कि सारे दवैत का अतिक्रमण हो जाता
है।