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कर सकते हो कृत्य, लेकिन कृत्यों द्वारा तुम वास्तविकता को नहीं पा सकते। तुम जा सकते हो और झुक सकते हो तीर्थ-मंदिर में; तुम उस आदमी के कार्य कर रहे हो जो श्रद्धा करता है। लेकिन तुम विकसित नहीं होओगे, क्योंकि गहरे में कोई श्रद्धा नहीं है, केवल संदेह है। विश्वास तो बाह्यआरोपण मात्र है।
यह तो ऐसे व्यक्ति का चुंबन करने जैसा है, जिसे तुम प्रेम नहीं करते। बाहर से तो हर चीज वैसी ही है, तुम चुंबन लेने की क्रिया कर रहे हो। वैज्ञानिक कोई अंतर नहीं खोज सकता। अगर तुम किसी का चुंबन लेते हो, तो उसका छायाचित्र, शारीरिक घटना, होठों की एक जोड़ी से दूसरी तक लाखों कीटाणुओं का पहुंचना-हर चीज ठीक वैसी ही होती है, चाहे तुम प्रेम करो या नहीं। अगर वैज्ञानिक देखे और निरीक्षण करे, तो क्या होगा भेद? कोई भेद नहीं; रत्ती भर भेद नहीं। वह कहेगा कि दोनों ही चुंबन हैं और ठीक एक समान ही है।
लेकिन तुम जो जानते हो कि जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो कुछ अदृश्य घटता है, जिसका पता किसी उपकरण द्वारा नहीं लगाया जा सकता। जब तुम किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करते, तो तुम दे सकते हो चुंबन, लेकिन कुछ घटित नहीं होता। कोई ऊर्जाअक संप्रेषण नहीं घटता, कोई मिलन नहीं घटता। ऐसा ही विश्वास और श्रद्धा के साथ है। श्रद्धा है प्रेममय चुंबन, जो अत्यंत प्रेममय हृदय का होता है, और विश्वास है एक प्रेमविहीन चुंबन।
तो कहां से शुरू करना होता है? पहली बात है, संदेह की जांच-पड़ताल करना। झूठे विश्वास को फेंक दो। एक ईमानदार संदेहकर्ता हो जाओ-वास्तविक। तुम्हारी ईमानदारी मदद देगी। क्योंकि अगर तुम ईमानदार हो तो तुम इस महत्व की बात को कैसे भुला सकते हो कि संदेह दुख निर्मित करता है। अगर ईमानदार होते हो तो तुम्हें जानना होता ही है। देर- अबेर तुम पूरी तरह समझ जाओगे कि संदेह अधिक दुख निर्मित करता रहा है। जितना ज्यादा तुम संदेह में चले जाते हो, उतना ज्यादा दुख होगा। और केवल दुख द्वारा कोई विकसित होता है।
__ और जब तुम उस बिंदु तक पहुंच जाते हो जहां दुख सहन करना असंभव हो जाता है। जब यह असहनीय हो जाता है,तुम इसे गिरा देते हो। ऐसा नहीं है कि तुम वास्तव में ही इसे गिरा देते हो, असहनीयता ही गिराना बन जाती है।
__ और एक बार जब संदेह नहीं रहता, तुम इसके द्वारा दुख उठा चुके होते हो, तब तुम श्रद्धा की ओर बढ़ना शुरू कर देते हो।
श्रद्धा रूपांतरण है। और पतंजलि कहते हैं कि श्रद्धा सारी समाधियों का आधार है; दिव्य के परम अनुभव का आधार।