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तुम बिलकुल अभी भगवान हो सकते हो क्योंकि तुम वह हो ही। बात को केवल पूरी तरह समझ लेना है। तुम पहले से ही वही अवस्था हो। ऐसा नहीं है कि तुम्हें विकसित होना है भगवान होने के लिए। वास्तव में तुम्हें अनुभव कर लेना है कि तुम पहले से ही वही हो ।
और यह घटता है समर्पण दद्वारा।
पतंजलि कहते हैं कि तुम ईश्वर में विश्वास करते हो, तुम ईश्वर में आस्था रखते हो, जो है कहीं, वहां ब्रह्मांड में, कहीं ऊपर, ऊंचाई पर, और तुम समर्पण कर देते हो। वह ईश्वर मात्र एक आश्रय है समर्पण करने में तुम्हें मदद देने के लिए जब समर्पण घटता है, तुम भगवान हो जाते हो। क्योंकि समर्पण का अर्थ है वह वृत्ति जिसमें तुम अनुभव करते हो कि अब मैं परिणाम से संबंध नहीं रखता। मैं भविष्य से संबंधित नहीं हूं मैं स्वयं अपने से ही बिलकुल संबंध नहीं रखता में समर्पण करता हूं।
जब तुम कहते हो, 'मैं समर्पण करता हूं तो किसका होता है यह समर्पण? उस मैं का, उस अहंकार का। और बिना अहंकार के तुम उद्देश्य के बारे में, परिणाम के बारे में कैसे सोच सकते हो? कौन सोचेगा उनके बारे में? तब तुम स्वयं को बहने देते हो तब तुम वहां जाते हो जहां चीजें ले जाती हैं। अब समय समष्टि करेगी निर्णय; तुमने तुम्हारे निर्णय बनाने का समर्पण कर दिया है।
पतंजलि कहते है कि दो तरीके हैं।
एक है, तुम्हारे प्रयास को समग्र बनाना । यदि तुम अहंकार एकत्रित नहीं करते, तब वह समग्र प्रयास स्वयं में ही एक समर्पण बन जायेगा। यदि तुम अहंकार एकत्रित करते हो, तब एक दूसरा तरीका होता है - ईश्वर को समर्पण कर दो।
ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।
तुम बीज हो, और परमात्मा प्रस्फुटित अभिव्यक्ति है। तुम बीज हो और परमात्मा वास्तविकता है। तुम हो संभावना; वह वास्तविक है। परमात्मा तुम्हारी नियति है, और तुम कई जन्मों से अपनी नियति पास रखे हुए हो बिना उसकी ओर देखे क्योंकि तुम्हारी आंखें कहीं भविष्य में लगी होती हैं; वे वर्तमान को नहीं देखतीं । यदि तुम देखने को राजी हो तो यहीं, अभी, हर चीज वैसी है जैसी होनी चाहिए। किसी चीज की जरूरत नहीं। अस्तित्व संपूर्ण है हर क्षण । यह कभी अपूर्ण हुआ ही नहीं; यह हो सकता नहीं। यदि यह अपूर्ण होता, तो यह संपूर्ण कैसे हो सकेगा? फिर कौन इसे संपूर्ण बनायेगा ?