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बात तुम पुस्तकों द्वारा भी कर सकते हो। लाखों दूसरे ढंग हैं ऐसी बातों को समझने के। मैं यहां हूं तुम्हें रूपांतरित करने के लिए।
मुझे सुनो सरलता से, निदोषतापूर्वक, शब्दों और उनके अर्थों के बारे में कोई चिंता बनाये बिना। उस स्पष्टता को गिरा दो;वह बहुत काम की नहीं है। जब तुम सिर्फ मुझे सुनते हो, पारदर्शी रूप से, बुद्धि अब वहां न रही-हृदय से हृदय, गहराई से गहराई, अंतस से अंतस-तब बोलने वाला खो जाता है और सुनने वाला भी। तब मैं यहां नहीं होता और तुम भी यहां नहीं रहते। एक गहन एकात्म्य बनता है; सुनने वाला और बोलने वाला एक बन जाते हैं। और उस एकात्म्य में तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस एकल को उपलब्ध होना ध्यान है। इसे ध्यान बनाओ-न कि चिंतनमनन, न कि वैचारिक प्रक्रिया; तब शब्दों से ज्यादा बड़ी कोई चीज सम्प्रेषित होती है-अर्थों से परे की कोई चीज। वास्तविक अर्थ, परम अर्थ अवतरित होता है, चला आता है-कोई वह चीज जो शाखों में नहीं है और हो नहीं सकती।
तुम स्वयं पढ़ सकते ही पतंजलि को। थोड़ा-सा प्रयास और तुम समझ जाओगे उसे। मैं यहां इसलिए नहीं बोल रहा कि इस प्रकार तुम पतंजलि को समझने के योग्य हो जाओगे; नहीं, यह तो बिलकुल उद्देश्य नहीं है। पतंजलि तो एक बहाना भर हैं,एक खूटी। मैं उन पर कुछ ऐसा टांग रहा हूं जो शास्त्रों के पार का है।
यदि तुम मेरे शब्दों को सुनते हो तो तुम पतंजलि को समझ जाओगे; एक स्पष्टता होगी। लेकिन यदि तुम मेरे नाद को सुनते हो, यदि शब्दों को नहीं बल्कि मुझे सुनते हो, तब वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए उद्घाटित हो जायेंगे। और उस अर्थ का पतंजलि से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वह शाखों से पार का सम्प्रेषण है।
आज इतना ही।
प्रवचन 15 - गुरुओं का गुरु
दिनांक 5 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।