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अत: जब कभी कोई चीज ज्ञात हो, तो वह मात्र एक रूपांतरण होगी अज्ञात का। अज्ञात बना रहता है अज्ञात ही। यह अज्ञेय होता है। तो जिस नाम से तुम इसे बुलाते हो, तुम पर निर्भर करता है। और यह निर्भर करता है उस उपयोगिता पर जिसमें कि तुम इसे रखने जा रहे हो। योगी के लिए विदयुत असंगत है, वह अंतस की, स्व-सत्ता की प्रयोगशाला में कार्य कर रहा है। वहां नाद का ज्यादा महत्व है, क्योंकि ध्वनि दवारा वह भीतर बहत घटनाएं बदल सकता है और ध्वनि दवारा वह आंतरिक विद्युत भी बदल सकता है। योगी इसे कहते हैं 'प्राण' - आंतरिक जीव-ऊर्जा या प्राणविदयुत। ध्वनि द्वारा वह तुरंत परिवर्तित की जा सकती है।
इसीलिए जब शास्त्रीय संगीत को सुन रहे होते हो, तुम अनुभव करते हो एक निश्रित मौन तुम्हें घेरे हुए है; तुम्हारी आंतरिक देह-ऊर्जा बदल चुकी है। एक पागल को सुनो और तुम अनुभव करोगे कि तुम पागल हुए जा रहे हो। क्योंकि पागल व्यक्ति देह-ऊर्जा की अव्यवस्था में है और उसके शब्द तथा ध्वनियां उस विद्युत को तुम तक ले आते है। किसी बुद्ध पुरुष के पास बैठो और अचानक तुम अनुभव करते कि तुम्हारे भीतर की हर चीज एक लय में डूब रही है। अचानक तुम अनुभव करते हो ऊर्जा की एक अलग ही गुणवत्ता तुममें जाग रही है। इसीलिए पतंजलि कहते हैं कि ओम का दोहराया जाना और इस पर ध्यान किया जाना सारी बाधाओं को समाप्त कर देता है। बाधाएं होती कौन-सी हैं? अब वे प्रत्येक बाधा की व्याख्या करते हैं, और बताते हैं कि कैसे वह समाप्त की जा सकती है ओम् के नाद को दोहराने दवारा और उस पर ध्यान करने दवारा। हमें उस पर विचार करना होगा।
'रोग निर्जीवता संदेह प्रमाद आलस्य विषयासक्ति भांति दुर्बलता और अस्थिरता हैं वे बाधाएं जो मन में विक्षेप लाती हैं।
प्रत्येक पर विचार करो-पहले है, रोग। पतंजलि के लिए, रोग का अर्थ है आंतरिक जीव-ऊर्जा का गैर-लयात्मक ढंग। तुम बेचैनी अनुभव करते हो। यदि बेचैनी, यह रोग, लगातार जारी रहे तो कभी न कभी यह सब तुम्हारे शरीर को प्रभावित करेगा।
पतंजलि अकुपंक्चर के साथ पूर्णतया सहमत होंगे और सोवियत रूस में किरलियान नामक व्यक्ति पतंजलि से सहमत होगा पूरी तरह से। अकुपंक्चर का संबोधि के साथ कोई संबंध नहीं है, अकुपंक्चर का तो सिर्फ संबंध है इसके साथ कि किस प्रकार शरीर रोगग्रस्त हो जाता है, कैसे अस्वस्थता घटित होती है। और अकुपंक्चर ने शरीर में सात सौ बिन्दु ऐसे खोज लिये हैं जहां आंतरिक प्राण-ऊर्जा स्पर्श करती है भौतिक शरीर को। ये सात सौ स्पर्श-बिंद शरीर में सर्वत्र हैं।