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और कैसे तुम मदद कर सकते हो किसी की? हर कोई चलता है उसके अपने कर्मों के अनुसार ही। वस्तुत: यदि कोई आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति तुम्हें छू लेता है और रोग मिट जाता है, तो घटता क्या है? किसी न किसी ढंग से गहरे में तिरोहित होना ही था तुम्हारे रोग को, तुम्हारे कर्म पूरे हो गये थे। यह तो मात्र एक बहाना है कि रोग तिरोहित हुआ आध्यात्मिक व्यक्ति के स्पर्श द्वारा किसी भी तरह उसे तो तिरोहित होना ही था क्योंकि तुमने कुछ किया था, इसीलिए रोग था। फिर वह समय आ गया उसके मिट जाने का ।
तुम किसी ढंग से किसी की मदद नहीं कर सकते। केवल एक ही होती है मदद, और वह है तुम्हारा वही हो जाना जैसा कि तुम चाहते हो हर कोई हो जाये। तुम बस वही हो जाओ। तुम्हारी मौजूदगी सहायक होगी, न कि तुम्हारा कुछ करना ।
बुद्ध क्या करते हैं? वे सिर्फ वहां हैं, मौजूद है प्रवाह की भांति, नदी की भांति। वे जो प्यासे होते हैं, वे आते है। नदी चाहे तुम्हारी प्यास तृप्त करना भी तो यह असंभव ही होता है यदि तुम तैयार न हो। यदि तुम अपना मुंह नहीं खोलते, यदि तुम झुकते नहीं पानी लेने के लिए, तो चाहे बहती भी हो, तुम रह सकते हो प्यासे ही और यही है जो घट रहा है। नदी बह रही है और तुम प्यासे ही बैठे हो किनारे पर। अहंकार तो हमेशा प्यासा रहेगा, भले ही वह जो भी प्राप्त कर ले। अहंकार है प्यास । परितृप्ति आत्मा की होती है, अहंकार की नहीं।
तीसरा प्रश्न:
आप एक ही समय में हम इतने सारे व्यक्तियों पर कार्य कर लेते हैं क्या है इसका रहस्य?
क्योंक में कार्य करता ही नहीं! मैं तो बस होता हूं। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि मेरे
पास कितने लोग हैं। यदि मैं कार्य कर रहा होता, तो निस्संदेह किस प्रकार एक ही समय में इतने लोगों पर कार्य कर सकता? मेरे कार्य की गुणवत्ता भिन्न है। वस्तुतः यह कार्य नहीं है। मुझे इन शब्दों का उपयोग करना पड़ता है तुम्हारे कारण मैं तो मात्र हूं यहां चीजें घटेंगी अगर तुम भी हो यहीं में सुलभता से मौजूद हूं यदि तुम भी सुलभ हो, तो चीजें अपने से ही घटेंगी, कुछ करने की जरूरत नहीं है।
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दो प्राप्यताओं के, दो मौजूदगियो के मिलन की आवश्यकता होती है; तब बातें घटती हैं अपने से ही जब तुम बीज बोते हो धरती में तो तुम क्या करते हो? क्या करते हो तुम? वहां तो बीज और धरती का मिलन ही होता है, और चीजें अपने से घटती हैं बस ऐसे ही।