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तो तुम सब लोगों से, तुमसे ही कुछ अपेक्षित है, मुझसे नहीं। तो तुम ऊब सकते हो किसी दिन मुझसे; वैसी संभावना है। तुम शायद मुझसे भागना चाहो; यह संभव हो सकता है। केवल एक चीज अपेक्षित है तुमसे। यदि तुम वह कर सको, तब कुछ करने की जरूरत नहीं-न तो मेरी तरफ से
और न ही तुम्हारी तरफ से। वह चीज है तुम्हारी सुलभ मौजूदगी। तुम अभी और यहीं बने रहो। और फिर इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता कि तुम यहां इस शहर में हो, इस आश्रम में हो, या कि संसार के किसी दूसरे कोने में हो।
यदि तुम्हारी मौजूदगी सुलभ हो, तो बीज अंकुरित होंगे ही। मैं हर कहीं मौजूद हूं। कहीं होने की बात नहीं है। चाहे मैं इस शरीर में भी नहीं रहूं मैं प्राप्य होऊंगा। लेकिन तब तुम्हारे लिए अधिकाधिक कठिन होगा, क्योंकि तुम तो अभी मौजूद नहीं हो जब मैं यहां और अभी इस शरीर में हूं और तुमसे बातें कर रहा हूं। तुम ध्यान देकर नहीं सुन रहे हो। निस्संदेह तुम सुन रहे हो,पर ध्यान नहीं दे रहे हो। तुम मेरी ओर देख रहे हो, पर 'मुझे नहीं देख रहे हो। मुझे देखो।
__ यह कोई कार्य नहीं है। यह मात्र एक सुलभ प्रेम है, और प्रेम द्वारा हर चीज संभव होती है, हर रूपांतरण संभव होता है।
चौथा प्रश्न:
आपने बताया कि प्रेम एक आवश्यकता है। कुछ लोगों के लिए यह मुख्य आवश्यकता पूरी करनी इतनी कठिन क्यों होती है?
बहुत सारी बातें संबंधित है। पहली एक बात है-समाज प्रेम के विरुद्ध है क्योंकि प्रेम सबसे बड़ा संबंध है, और प्रेम तुम्हें अलग कर देता है समाज से। दो प्रेमी स्वयं में ही एक संसार बन जाते है; वे किसी और की परवाह नहीं करते। इसीलिए समाज प्रेम के विरुद्ध है। समाज नहीं चाहता कि तुम प्रेम करो। विवाह अनुमत है, पर प्रेम नहीं। क्योंकि जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम स्वयं में ही एक संसार बन जाते हो-अलग। तुम चिता नहीं करते कि संसार में दूसरों को क्या घट रहा है। तुम तो उन्हें भूल ही जाते हो। तुम निर्मित कर लेते हो तुम्हारा अपना ही एक निजी संसार।
प्रेम एक ऐसी सृजनात्मक शक्ति है कि वह एक संपूर्ण विश्व बन जाती है। तब तुम अपने केंद्र के चारों ओर ही घूमने लगते हो। और यह बात समाज बरदाश्त नहीं कर सकता है। तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारा प्रेम बरदाश्त नहीं कर सकते क्योंकि यदि तुम प्रेम में पड़ते हो तो तुम उन्हें बिलकुल ही भूल जाते हो, जैसे कि वे कभी थे ही नहीं। तब वे सीमांत पर रहते है, कहीं बहुत दूर।